Saturday 11 June 2016

पास-फेल में फंसी शिक्षा: स्कूलों से बाहर धकेली जा रही छात्राएं


इस बार भी दिल्ली के सरकारी स्कूलों की नौवीं कक्षा के परिणामों को लेकर अखबारों में काफी नकारात्मक खबरें छपीं। द इंडियन ऐक्सप्रेस में 3 मई को छपी एक खबर करावल नगर के उस उच्चतर माध्यमिक स्कूल के बारे में थी जिसे विद्यार्थियों की संख्या के हिसाब से शहर का सबसे बड़ा स्कूल बताया जाता है। छठी से बारहवीं कक्षा तक के इस स्कूल में 7,000 से अधिक छात्रायें पढ़ती हैं और यह 3-3 घंटे की चार पालियों में चलता है। इन तीन घंटों में छह विषयों की कक्षाएँ लगती हैं और कमरों की कमी की वजह से बहुत-सी कक्षाएँ बाहर, खुले में लगती हैं। 31 मार्च को जब परिणाम घोषित हुए तो नौवीं की 700 और ग्यारहवीं की 887 छात्रायें फेल दर्ज की गईं। सैकड़ों छात्राओं व उनके अभिभावकों द्वारा स्कूल के समक्ष विरोध-प्रदर्शन करने पर शिक्षा निदेशालय द्वारा एक जाँच-दल गठित किया गया। इस जाँच-दल में कुछ अन्य स्कूलों के उप-प्रधानाचार्य भी शामिल थे। जाँच-दल ने स्कूल का दौरा किया और लगभग 50 उत्तर-पुस्तिकाओं को देखा। इनमें से केवल एक में उन्होंने (5) अंक बढ़ाने की अनुशंसा की - जिससे कि उक्त छात्रा के परिणाम पर कोई असर नहीं पड़ा। दल ने सिर्फ उन्हीं छात्राओं की उत्तर-पुस्तिकाएँ देखीं जिन्होंने इसके लिए लिखित में आवेदन किया था।
 अख़बार की रपट के अनुसार छात्रायें निराश थीं क्योंकि जाँच-दल ने उनका पक्ष नहीं सुना था। एक छात्रा का कहना था कि बहुत-सी छात्राओं को तो यह पता ही नहीं था कि उन्हें अपनी उत्तर-पुस्तिका की दोबारा जाँच कराने के लिए आवेदन करना होगा। उन्होंने यह आरोप भी लगाया कि प्रधानाचार्या के दफ्तर से प्रत्येक कक्षा मॉनिटर को एक पत्र सौंपा गया था जिसमें लिखा था, 'हमारी पुस्तिकाएँ पुनः जाँची गई हैं और हम स्कूल द्वारा उठाये गए क़दमों से संतुष्ट हैं।' उनका कहना था कि अधिकतर छात्राओं ने उक्त पत्र को बिना पढ़े ही उसपर दस्तखत कर दिए थे। उधर प्रधानाचार्या का कहना था कि उन्होंने कोई दबाव नहीं बनाया था और उस पत्र पर सिर्फ उन्हीं छात्राओं ने दस्तखत किये थे जो सचमुच में संतुष्ट थीं। 
 अख़बार की रपट के अनुसार जाँच-दल के सदस्यों ने खराब परिणामों के पीछे निम्नलिखित कारण गिनाए -
 1 अधिकतर उत्तर-पुस्तिकाएँ या तो खाली थीं या उनमें सिर्फ प्रश्न उतारे गए थे। 
2 स्कूल में ढाँचागत कमियाँ थीं और छात्राओं की संख्या बहुत अधिक थी। 
3 छात्रायें नो-डिटेंशन नीति के चलते ही इतनी आगे तक आ गई थीं। 

हालाँकि, जाँच-दल को अपनी रपट एक हफ्ते में सौंपनी थी, जिसे हम अब तक देख नहीं पाए हैं।   
 यह कहना मुश्किल है कि इस तरह के परिणाम और उनकी ऐसी प्रतिक्रिया कितनी सामान्य है व किस हद तक अपवाद। पिछले साल ही दिल्ली सरकार ने नौवीं के खराब परिणामों का हवाला देते हुए नो-डिटेंशन नीति को हटाने का विधेयक पारित किया था - जिसे कि केंद्र सरकार ने, वही राय रखते हुए भी, स्वीकृति नहीं दी है! लेकिन शिक्षा निदेशालय बीते सालों के नौवीं के परिणामों के आँकड़े उपलब्ध कराने में विफल रहा है। इसलिए अव्वल तो यह कहना ही मुश्किल है कि नो-डिटेंशन की नीति की वजह से परिणामों में गिरावट आई है। दूसरी तरफ, अगर इस नीति से शिक्षकों के पढ़ाने, बच्चों के सीखने, उनकी पढ़ाई व परिणामों पर खराब असर पड़ा है, तो आरोप लगाने वालों को समझाना चाहिए कि निजी स्कूलों में पढ़ने वालों के परिणामों पर इस नीति ने क्या डाला है, और क्यों। यह हमारे लिए एक गम्भीर चुनौती है कि खुद कई शिक्षक संगठन, जिनमें युवा वर्ग का आधार रखने वाले मंच भी शामिल हैं, आखिर क्यों शिक्षा को परीक्षा से और परिणामों को इस नीति से ही जोड़कर देख रहे हैं। जबकि शिक्षा तथा विद्यार्थियों की आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों से जुड़ी सब बातों का अनुभव-अवलोकन-विश्लेषण करने के बाद तो हमें जाँच-दल की तरह शिक्षा की बदहाली का ठीकरा इस बेशक भ्रामक व अदना-से प्रावधान पर फोड़ने की ग़लती नहीं करनी चाहिए। 
 13 मई को द हिन्दू में दिल्ली सरकार के एक और स्कूल के परिणामों से जुड़ी खबर आई। बताया गया कि कम्पार्टमेंट परीक्षाओं के परिणाम घोषित होने के बाद यमुना विहार के उच्चतर माध्यमिक स्कूल की नौवीं व ग्यारहवीं कक्षाओं की छात्राओं तथा उनके अभिभावकों ने प्रधानाचार्या को बंधक बना लिया व स्कूल में तोड़फोड़ की। प्रदर्शनकारियों ने आरोप लगाया कि प्रधानाचार्या ने जानबूझकर कम्पार्टमेंट की परीक्षा देने वाली 90% छात्राओं को फेल कर दिया। अख़बार की रपट के अनुसार, नौवीं की कुल 817 छात्राओं में से सिर्फ 256 पास हुई थीं और फिर कम्पार्टमेंट में केवल 31 ही पास हो पाईं। इस प्रकरण में भी शिक्षा निदेशालय के एक अधिकारी का यह बयान छपा था कि अगर छात्रायें कुछ लिख ही नहीं रहीं तो उन्हें पास कैसे किया जा सकता है। उक्त अधिकारी ने यह सवाल भी खड़ा किया कि जब प्रधानाचार्या की समीक्षा छात्राओं के परिणामों के आधार पर की जाने वाली है, तो आखिर कोई प्रधानाचार्या जानबूझकर परिणाम क्यों बिगाड़ेंगी।
 इन दोनों, और इस तरह की अन्य खबरों में जो एक बात समान है वह है छात्राओं का विरोध-प्रदर्शन। इसे समाज की पितृसत्तात्मक संरचना के आलोक में ही समझना होगा। समाज की जकड़बंदियों में क़ैद लड़कियों का एक बड़ा वर्ग आज औपचारिक शिक्षा को तुलनात्मक रूप से एक मुक्ति के साधन के रूप में देखता है। हमारे स्कूलों में पढ़ने वाली छात्राओं में से आज भी बहुत-सी छात्रायें दसवीं-बारहवीं पास करने से पहले स्वतंत्र रूप से घर से ज़्यादा दूर नहीं जा पाती हैं। बहुत-सी छात्रायें ऐसी भी हैं जिन्होंने बारहवीं पास करने के बाद ही पहली बार सार्वजनिक साधन पर अपने गली-मोहल्ले से बाहर का सफर अकेले तय किया है। लड़कों के अनुभव में औपचारिक शिक्षा वो मुक्तिकामी मायने नहीं रखती जोकि यह लड़कियों के लिए रखती है। यह बात अलग है कि आगे चलकर लड़के-लड़कियाँ दोनों प्रगतिशील राजनीति से प्रेरित छात्र-आंदोलनों से जुड़कर शिक्षा के मुक्तिकामी स्वरूप को व्यक्तिगत पक्ष से उठाकर सामाजिक-वर्ग के स्तर तक ले जाने की समान सम्भावना रखते हैं। चाहे वो कभी स्कूल न गए हों या प्राथमिक-माध्यमिक स्तर पर ही बाहर कर दिए गए हों, लड़कों के लिए सामान्यतः इस संसार, इस देश, इस शहर की सड़कों, गलियों, मैदानों के रास्ते - वर्गीय-जातीय बंदिशों के अलावा - खुले हुए हैं; बल्कि उनके मनस में ये उनके अपने रास्ते हैं, उनकी अपनी मिल्कियत है, अपनी रची दुनिया है।
 लड़कियों को पता होता है कि एक बार फेल हो जाने का मतलब सिर्फ पढ़ाई छूट जाना नहीं है, बल्कि बाहरी व निःसन्देह अजनबी व चुनौतीपूर्ण दुनिया से एक तार का टूट जाना भी है। स्कूल-कॉलेज के रास्ते समाज-दुनिया से होकर भी गुज़रते हैं। करावल नगर के स्कूल की जाँच करने गए दल के एक सदस्य का यह कहना कि जो छात्रायें फेल हुई हैं वो मुक्त विद्यालय में प्रवेश लेकर बारहवीं की परीक्षाएँ दे सकती हैं, इस संदर्भ को और साफ़ कर देता है। क्या कारण है कि जब ओपन से दसवीं-बारहवीं की परीक्षाएँ दी जा सकती हैं, तब फिर भी छात्र-छात्रायें नियमित स्कूलों में पढ़ना चाहते हैं? क्या कारण है कि आर्थिक परिस्थितियों की मजबूरी ही विद्यार्थियों के बड़े वर्ग को मुक्त/दूरस्थ केंद्रों में धकेलती है, वरना वो भी नियमित कॉलेज-संस्थानों में प्रवेश लेना चाहते हैं? एक कारण निश्चित ही शिक्षा का स्तर है, पर एक कारण घर-परिवार-गली-मोहल्ले-जाति-धर्म-सम्प्रदाय से परे एक माहौल को पाने, उसे रचने की उम्मीद भी है। इसके बरक्स हम यह भी जानते हैं कि पिछले कुछ समय से स्कूलों के प्रशासकों को ये निर्देश दिए जा रहे हैं कि वो फेल हो चुके विद्यार्थियों को नियमित पढ़ाई जारी रखने से हतोत्साहित करें, उन्हें पुनः प्रवेश न दें, ओपन में नाम लिखवाने का दबाव बनायें। (दूसरी तरफ, 'करत-करत अभ्यास' वाली नैतिकता का पोंगा बखान भी जारी रहेगा।) तो जब देश के नीति निर्धारक, मंत्री, अधिकारी हमारे विद्यार्थियों के लिए ही दूरस्थ, मुक्त शिक्षा को बढ़ावा देने की बात करते हैं तो वो सीधे छात्राओं, वंचित तबकों की आज़ादी के विरोध में ही नहीं, बल्कि नए समाज की रचना के खिलाफ भी खड़े होते हैं। 
 एक अन्य उदाहरण इस संदर्भ को और साफ़ कर देता है। जब किसी स्कूल में 7,000 छात्राओं पर मात्र मुट्ठीभर नियमित शिक्षक होंगे तो उनके द्वारा ईमानदाराना शिक्षण व पुस्तिकाओं की जाँच करने की एक सीमा भी होगी। ऐसी व्यवस्था में शिक्षकों से नायकवादी भूमिका निभाने की उम्मीद करना, विद्यार्थियों के साथ भी धोखा है। पिछले साल राजस्थान के एक गाँव में जब एक सरकारी स्कूल की छात्राओं ने शिक्षकों की कमी के विरोध में हड़ताल की, जुलूस निकाला व सड़क पर उतरकर प्रदर्शन किये, तो उन्होंने यह सवाल भी दाग़ा कि जो सरकार 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' का नारा देती है, वो खुद छात्राओं के स्कूलों में शिक्षक क्यों नहीं नियुक्त करती, अपने स्कूलों को बदहाल क्यों रखती है। ज़ाहिर है कि इतनी उत्तेजना व पीड़ा से ये सवाल उत्पीड़ित विद्यार्थी ही पूछ सकते हैं। और आज वो पूछ भी रही हैं, क्योंकि यह उनकी आज़ादी, उनके अस्तित्व का सवाल है। अब उन्हें महज़ सरकारी-प्रचारी नारों, पितृसत्ता के स्त्री-सुलभ कोर्सों से बहलाया नहीं जा सकता है। 
 मगर इन दोनों स्कूलों में छात्रा-अभिभावक विरोध-प्रदर्शन हम शिक्षकों से एक अन्य सवाल भी करता है - आखिर इतने साल स्कूल में पढ़ने के बावजूद शिक्षकों (जिनमें प्रधानाचार्या भी शामिल हैं) व छात्राओं के बीच वो सहज, दोस्ताना, ईमानदाराना संबंध क्यों नहीं बन पाए जिनके आधार पर परिणामों को समझने-समझाने में मदद मिलती? यह आपसी अविश्वास की स्थिति कैसे बनी, कैसे इस हद तक पहुँच गई? इस अविश्वास के संबंधों, इस स्थिति के लिए कौन कितना ज़िम्मेदार है? (क्या छुट्टियों से ठीक पहले, दस मई को कम्पार्टमेंट की परीक्षाओं के परिणाम घोषित करना महज़ संयोग है, व्यावहारिक मजबूरी है या फिर अविश्वास से उबरे लोगों-विद्यार्थियों के क्रोध को निष्प्रभावी बनाने की तरकीब है?) या यह सवाल ही निरर्थक है - क्योंकि व्यवस्था के ऐसे विषमतामूलक हो जाने के बाद उसे व्यक्तिगत संबंधों की भलमनसाहत से न ढँका जा सकता है, न बहलाया जा सकता है और न ही इसकी कोशिश करनी चाहिए। इसलिए छात्राओं का रोष, उनका विरोध एक स्वाभाविक व स्वागतयोग्य परिघटना है, लेकिन ज़रूरत इसे इस-उस स्कूल, हमारे-तुम्हारे परिणामों की तात्कालिकता - जोकि निश्चित ही अपने-आप में अहम है - से निकालकर शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त असमानता और फिर सामाजिक-आर्थिक असमानता के प्रति रोष से जोड़ने की है।  
हमारे अपने पड़ोस में ऐसे सरकारी स्कूलों की कमी नहीं है जहाँ कमरों की कमी के कारण विद्यार्थियों को सप्ताह में केवल दो या तीन दिन ही स्कूल बुलाया जाता है, क्योंकि करावल नगर के स्कूल की तरह उनका भवन भी 'खतरनाक' घोषित हो चुका है और विद्यार्थियों की संख्या के हिसाब से इलाके में सरकारी स्कूलों की घोर कमी है। (दूसरी तरफ, सुना है कि केंद्र सरकार देशभर में राज्य के अधीन खाली पड़ी ज़मीन का ऐतिहासिक सर्वे करा रही है ताकि उसे निजी उद्योग लगाने के लिए दिया जा सके - भूमि-अधिग्रहण विधेयक पारित न हो पाने से उपजी समस्या के उपाय के रूप में। इस ऐतिहासिक योजना में भूमिहीनों को ज़मीन देने, सार्वजनिक अस्पताल-स्कूल बनाने या सार्वजनिक आवास खड़े करने का ज़िक्र अलबत्ता नहीं था।) उधर निजी मुनाफे के लिए चलने वाले नित नए खड़े किये जा रहे स्कूलों का बाजार तो इस आपदा की स्थिति में और फले-फूलेगा। एक बार सरकारी स्कूल का भवन खतरनाक घोषित हुआ नहीं - निजी स्कूलों के भवन कब खतरनाक हो जाते हैं और उनका प्रबंधन क्या करता है - कि फिर वहाँ साल-दर-साल प्रवेशों की संख्या घटती जाएगी और फिर भवन के पुनर्निर्माण के बाद भी उसे वापस ढर्रे पर लाना आसान नहीं होगा। कुछ की पढ़ाई छूट जाएगी, कुछ को बाहर कर दिया जायेगा और दोनों को ही व्यवस्था आसानी से वापस स्वीकार नहीं करेगी - चाहे शिक्षा अधिकार क़ानून हो या न हो और दीवारों पर वसुधैव कुटुंबकम लिखा हो या न लिखा हो। इस बीच बहुत-से विद्यार्थी व प्रवेश-अभिलाषी निजी स्कूलों में चले गए होंगे।
 परीक्षाओं में या परिणाम आने पर इन छात्राओं से ये नहीं पूछा जायेगा कि उनके स्कूल में कितनी नियमित पढ़ाई हुई, कितने नियमित शिक्षक थे, उन्हें घर पर पढ़ने का कितना मौक़ा और कैसा माहौल मिलता था - उन्हें तो बस फेल घोषित करके, कुछ दोष नो-डिटेंशन पर और कुछ उनके वर्गीय चरित्र/स्वभाव पर मढ़ दिया जायेगा। जाँच-दल के एक सदस्य ने यह टिप्पणी यूँ ही नहीं की थी कि नो-डिटेंशन नीति के चलते ही 'ये इतनी आगे पहुँच गई हैं'
सत्तावादी, ब्राह्मणवादी विचार तो यही है कि ये अपनी औक़ात से ज़्यादा पढ़ रही हैं, पढ़ना चाह रही हैं। (जबकि इनके लिए, इनकी काबीलियत के अनुसार, कौशल-विकास व व्यावसायिक कोर्स बनाए जा रहे हैं!) ज़ाहिर है कि हमारे स्कूल-कॉलेजों में वंचित वर्गीय-जातिगत पृष्ठभूमियों से आने वाली छात्रायें कुछ लोगों की आँखों की किरकिरी बन रही हैं। इन लोगों को अब अपनी आँखों के किरकिरेपन की आदत डाल लेनी चाहिए। विरोध-प्रदर्शन के ये तेवर यह भी दिखाते हैं कि सत्ता पक्ष चाहे पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तकों से तमाम परिवर्तनकामी तत्व, उदाहरण बाहर कर दे और दोगली समरसता व खोखले गौरव के मूल्य के पाठ ठूँस दे, मगर जब तक शिक्षा में असमानता रहेगी तथा विद्यार्थियों की जीवन-परिस्थितियों में आर्थिक-सामाजिक द्वंद्व रहेगा, उनके खुद-ब-खुद राजनैतिक चेतना से लैस होने की सम्भावना भी बरकरार रहेगी। 
13 मई के द हिन्दू में सरकारी स्कूल से जुड़ी एक और खबर भी छपी थी। मौरिस नगर के स्कूल में पढ़ने वाली ग्यारहवीं कक्षा की एक छात्रा ने रसायन विज्ञान की कम्पार्टमेंट परीक्षा में फेल होने पर आत्म-हत्या कर ली। वह डॉक्टर बनने की अपनी इच्छा तो पूरी नहीं कर पाई, लेकिन अपनी दोनों आँखें दान कर गई। उसके पिता ने बताया कि वो हमेशा पढ़ाई में ही व्यस्त रहती थी और उसने दोस्त नहीं बनाए थे। उन्होंने अफ़सोस जताते हुए कहा कि अगर उसके दोस्त होते जिनसे वो अपनी बातें साझा करती तो शायद वो आज ज़िंदा होती।
उधर टी. वी. पर ऐसे बच्चों के साक्षात्कार दिखाकर जोकि खुद कोचिंग के बाज़ार मे क़ैद हैं, नई शिक्षा नीति में डिटेंशन की पुनर्स्थापना की वकालत इस बिना पर की जा रही है कि (नो-डिटेंशन व ग्रेडिंग के कारण) प्रतिस्पर्धा के मूल्य में आई गिरावट से शिक्षा का पतन होहा है। मानव-संसाधन मंत्री के साथ, बहुत-से आध्यात्मिक प्रवृत्ति के गुरुजन, बिज़नेस नेता, संस्कारी दल व कुंठित गणमान्य बच्चों में 'गिरती नैतिकता' के प्रति घोर चिंता जताते हुए धर्म-संस्कार-परम्परा-परिवार में रची-बसी शिक्षा को इसका उपाय बता रहे हैं। किसका धर्म, कौन-से संस्कार, कैसी परम्परा, इस सवाल पर भी बात किया जाना चाहिएI उनकी नीतियाँ छात्राओं से स्पष्ट कह रही हैं कि या तो स्कूल छोड़कर घर बैठो और पितृसत्ता की फुलटाइम ग़ुलामी करो, या पूँजी की सस्ती ग़ुलामी वाले कोर्स करो या फिर दुनिया ही छोड़ दो।
मगर अपनी आँखें भेंट में दे गई छात्रा का निर्णय प्रत्यक्ष विरोध कर रही छात्राओं की आवाज़ से आवाज़ मिलाकर साफ जवाब दे रहा है कि इस व्यवस्था को अस्वीकार करके हम ऐसी दुनिया बनाने का संकल्प लेते हैं जहाँ सब अपनी पसंद के, अपनी शौक़ की पढ़ाई के, काम के बराबर अवसर पायेंगे। जहाँ व्यक्तिगत संतोष-सफलता न पाने पर नई राह, नए प्रयोगों के मौके खुले रहेंगे - जो पैदाइश के संयोग से तय नहीं होंगे, जिनमें ज़िल्लत नहीं होगी, क्योंकि प्रतिस्पर्धा नहीं होगी, सहयोग होगा, अपनापन होगा, सहज इंसानी भाव होगा।    

हमारी माँगें

·         जितने स्कूलों में भवन व किसी भी कमी के चलते उपयुक्त माहौल में और नियमित कक्षाएँ न लग रही हों, वहाँ पूरे इंतेज़ाम होने तक सरकार पड़ोस में स्थित निजी स्कूलों के भवनों में इन विद्यार्थियों की कक्षाओं की व्यवस्था करे या फिर इलाके में खाली पड़ी ज़मीन को किराए पर अथवा आदेशानुसार लेकर कक्षाएँ लगाई जाएँ। 
·         जब तक किसी स्कूल में उपयुक्त माहौल में नियमित कक्षाएँ नहीं लग रही हों, तब तक उसके सभी फेल विद्यार्थियों को गर्मी की छुट्टियों के बाद परीक्षा देने का एक और अवसर दिया जाये। 
·         फेल होने वाले किसी भी विद्यार्थी पर ओपन में प्रवेश लेने का दबाव नहीं बनाया जाये और न ही उन्हें स्कूल से बेदखल किया जाये या पुनः प्रवेश देने से मना किया जाये। 


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