Saturday 11 April 2020

स्वास्थ्य आपातकाल को वैचारिक आपातकाल न बनायें !!!


5 अप्रैल को हम में से कई शिक्षकों को ये निर्देश आए कि आरोग्य सेतु ऐप को डाउनलोड करें और विद्यार्थियों को भी इसे डाउनलोड करने को और ‘दीये’ जलाने को कहें (टॉर्च, मोमबत्ती, फ़ोन की लाइट वाली बात इतनी सुनाई नहीं दी जितनी दीये वाली)| ज़ाहिर है कि हममें से कुछ लोग काफी परेशान भी हुए; कुछ ने किया, कुछ ने नहीं भी किया और कुछ को मजबूरी में करना पड़ा|

सरकार ने हमें  ये निर्देश तो नहीं दिए थे कि उत्तरी-पूर्वी दिल्ली में हुए साम्प्रदायिक हिंसा के बाद वहाँ के अभिभावकों को फोन करके पूछें कि उनके घर-बार को कोई नुकसान तो नहीं हुआकोई सामान तो नहीं जलाअगर जला तो क्या उनके पास खाने-पीने का इंतज़ाम है या वे अभी कैसे गुज़ारा कर रहे हैं...। हालाँकि, एक PTM की गयी थी, लेकिन बहुत देर से और ये जानने के लिए नहीं कि बच्चे किन हालातों से ग़ुज़रे हैं और अभी कौन-सी परेशानी झेल रहे हैं, बल्कि ये पाठ पढ़ाने के लिए कि परिस्थिति सामान्य है|

सरकारों ने हमें ये निर्देश भी नहीं दिए कि बच्चों से फोन करके यह पूछें कि लॉकडाउन के बाद क्या उनके घरों में राशनदूध-दही-सब्जी-दवा आदि का इंतज़ाम हैवे 21 दिन तक कैसे गुज़ारा करेंगे...। कहीं उनके परिवार को पलायन तो नहीं करना पड़ा? अगर हाँ, तो ऐसे परिवारों की जानकारियाँ इकट्ठी कर लें ताकि सहयोग पहुँचाया जा सके|

लेकिन इन सरकारों ने हमें ये निर्देश दिए कि एक-एक बच्चे के घर फोन करके यह कहें कि अभिभावकों को मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री का प्रोग्राम देखना है कि कोरोना के लॉकडाउन के समय बच्चों का पालन-पोषण कैसे करना है| केंद्र सरकार से यह निर्देश आया कि विद्यार्थियों के माता-पिता के मोबाइल फोनों में आरोग्य-सेतु ऐप डाउनलोड करवायें और उनसे दीये जलवायें, भले ही उनके पास स्मार्टफोन  या  उसे चालू रखने का पैसा हो या नहीं, भले ही उनके अपने घर में खाना बनाने का तेल हो या नहीं|

ये सरकारें ये सब किसके लिए लिखती/करती हैं? मुठ्ठी-भर लेकिन बड़ी धाक रखने वाली मध्यवर्ग जनता के लिए? हम पहले अपने विद्यार्थियों का हाल-चाल और ज़रूरतें तो पता कर लें| इस बारे में ये विद्यार्थी क्या सोचते होंगे कि उनके शिक्षक उन्हें कब फ़ोन करते हैं और कब नहीं?

हम गुलामों की तरह आरोग्य ऐप क्यों डाउनलोड करें, जबकि अगले ही दिन, इस ज़ोर-ज़बरदस्ती और निजता के उल्लंघन के ख़िलाफ़ कुछ अभिभावकों की शिकायतें मीडिया में आने पर, MHRD (मानव संसाधन विकास मंत्रालय) ख़ुद यह सफ़ाई देता है कि उसने तो इसे अनिवार्य नहीं किया था तथा यह ऐच्छिक था? (https://indianexpress.com/article/cities/delhi/delhis-private-schools-write-to-parents-on-diya-campaign-mhrd-says-it-was-voluntary-6349035/)| 

ऐसी ऐप के सुरक्षा पहलुओं और फ़ायदे-नुक़सान तक को लेकर जब इतने सवाल हैं, तो फिर उन्हें जाने-समझे बिना हम अपने शिक्षकों/विद्यार्थियों पर इन्हें क्यों थोप देते हैं? (4 लिंक नीचे) आज हम तकनीकी के किसी मासूम दौर में नहीं जी रहे हैं जिसमें हम उसे अपने विवेक, अपनी मर्ज़ी से इस्तेमाल करने, न करने के लिए आज़ाद हों। हमें पता होना चाहिए कि आज तकनीकी बड़ी, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुनाफ़े (डाटा व्यापार, टार्गेटेड प्रचार) और नागरिकों (असहमति, प्रतिरोध) पर सरकारी निगरानी, जासूसी व षड्यंत्र तक का अहम ज़रिया है। स्कूलों में भी हमारा अनुभव सूचना-प्रौद्योगिकी व तकनीकी के उस बेजा व शिक्षा-विरोधी इस्तेमाल का गवाह है जिसके तहत आनन-फ़ानन में आदेश जारी किये जाते हैं और हमसे तमाम तरह का डाटा माँगा जाता है। समझदार चूहों ने बिल्ली के गले में घंटी बाँधी थी; अब वो बिल्ली उनसे एक-दूसरे के गले में घंटी बँधवा रही है।  

क्या दीये के लिए फ़ोन/व्हाट्सऐप करते हुए हमने विद्यार्थियों से यह पूछा कि उनके घर में खाना बनाने के लिए तेल कम तो नहीं है? क्या हमारे सभी बच्चे एक ही धर्म-मान्यता से आते हैं? क्या अब भारत विविधताओं वाला देश नहीं रहा? क्या अब ये साफ़ हो जाए कि सरकार की भाषा को इंसाफ़पसन्द और धर्मनिरपेक्ष होने की ज़रूरत नहीं है?


हमसे कहा गया कि एक साथ रोशनी करके 130 करोड़ लोग एकता महसूस करेंगे, कि हम कोरोना के खिलाफ लड़ाई में एक साथ हैं| हम इस सच्चाई का क्या करें कि कोरोना के खिलाफ लड़ाई में सारे भारतीय एक-साथ नहीं थे/हैं| मध्य-वर्ग अपने घरों में पूरे राशन-पानी के साथ सुरक्षित है। हाँ, बोर और चिंतित ज़रूर है कि कहीं उसे यह बीमारी ना लग जाए। लेकिन करोड़ों की संख्या में मज़दूर, छोटे किसान, छोटे दुकानदार, रेहड़ी-पटरी वाले (जिनकी संख्या मध्यवर्ग से कई-कई गुना ज़्यादा है) भटक रहे हैं, भूख-प्यास से परेशान हैं, आजीविका और भविष्य को लेकर आशंकित हैं| बात यह है कि हमारे विद्यार्थी तो इस वर्ग से आते हैं जबकि हम शिक्षक मध्य-वर्ग से आते हैं| शिक्षा विभाग और सीबीएसई वाले शायद और उच्च-मध्य वर्ग से आते हैं| क्या हमारी गतिविधियों की सूची में उन माओं के अनुभव दर्ज करवाए जायेंगे जो एक हफ्ते में कामगार से भिक्षु बन गईं? क्यों इन सब के पास लॉकडाउन से पहले आटा-दाल-चावल-चीनी-तेल-गैस-दूध-फल-सब्जी-दवा के पैसे नहीं पहुँचे?

यहाँ तक कि स्कूलों के व्हाट्सऐप ग्रुप पर इस पूरे प्रोग्राम पर प्रश्न उठाने वाले शिक्षकों को सिर्फ़ यह याद दिलाने के लिए टारगेट किया गया कि अगर ये व्हाट्सऐप ग्रुप प्रशासनिक हैं तो इन्हें निजी व राजनीतिक विचार प्रकट करने के मंच नहीं बनाया जाना चाहिए। 

ये प्रतीकात्मकता किसलिए?
'साथ' का जश्न मनाने के लिए साथ होना भी तो चाहिए|
या इसलिए कि आदेशों और भीड़ के तेज से हमारी आँखें धुँधला जाएँ और बंद हो जाएँ? 
या इसलिए कि सिर्फ चिन्हों से खुश हो जाना हमारे विवेक को कुंद कर दे? 

आरोग्य-सेतु ऐप


Case study of Singapore, use of Technology

Technology debate

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