Monday 5 October 2020

डिजिटल-ऑनलाइन पढ़ाई के वायरस का एक्स-रे

 फिरोज़

आज कोरोनावायरस के नाम पर थोपे गए देशव्यापी 'लॉकडाउन' को 6 महीने से ज़्यादा का समय बीत गया है। प्रशासनिक भाषा में अब हम 'अनलॉक' की प्रक्रिया में हैं। इस प्रक्रिया के भी कुछ चरण ग़ुज़र चुके हैं, लेकिन देश की सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों ने अपनी असंवेदनशीलता और मूर्खता से आमजन की ज़िंदगी में जो त्रासदी उत्पन्न की थी उसके ख़त्म होने के आसार नज़र नहीं आ रहे हैं। जिन्हें आम लोगों की ज़िंदगियों तथा देश की सामाजिक-आर्थिक विविधता/विषमता के बारे में न कोई इल्म हो और न कोई फ़िक्र, ऐसे 'मज़बूत' सत्ताधारी ही ऐसा बर्बर व मनमाना फ़ैसला ले सकते हैं। ये बात अलग है कि स्वास्थ्य के राज्य-विषय होने के चलते व 1897 के महामारी संबंधी क़ानून तथा 2005 के आपदा प्रबंधन क़ानून के तहत भी ऐसा करने का कोई संवैधानिक आधार ही नहीं था। फिर राज्यों व स्वास्थ्य तथा अन्य विशेषज्ञों से सलाह-मशवरा करने की न्यूनतम लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ग़ुज़रना उनके व्यक्तित्व को शोभा नहीं देता। तो वही हुआ जो होना था - भुखमरी, काम-धंधे चौपट होना, ऐतिहासिक पलायन/विस्थापन, स्वास्थ्य सेवाओं का ठप हो जाना, पुलिसिया दमन, प्रशासनिक चालबाज़ी व ग़ैर-जवाबदेही। 


बिना इस बात को संज्ञान में लिए कि हर राज्य, हर ज़िले के हालात एक-से नहीं हैं, देशभर के स्कूल बंद कर दिए गए। उसके बाद, बिना इसका ख़याल करे कि देश की लगभग तीन-चौथाई आबादी डिजिटल उपकरणों व इंटरनेट के तारों से जुड़ी हुई नहीं है, सभी स्कूलों और विद्यार्थियों पर ऑनलाइन कक्षायें थोप दी गईं। कक्षाएँ शुरु करने के हफ़्तों बाद डिजिटल उपकरणों/इंटरनेट की उपलब्धता के बारे में सर्वे किये गए और दिशा-निर्देश जारी किये गए। मगर ये भी महज़ एक दिखावटी क़दम था क्योंकि इसके प्रकाश में विद्यार्थियों के हक़ में ज़मीन पर कोई मौलिक बदलाव नज़र नहीं आया। 8वीं कक्षा तक के विद्यार्थियों के संदर्भ में तो यह सीधा-सीधा शिक्षा अधिकार अधिनियम का उल्लंघन है क्योंकि उन्हें अपनी स्कूली पढ़ाई के लिए राज्य द्वारा दी जाने वाली अनिवार्य सहायता से वंचित करके अपने निजी ख़र्चे के सहारे छोड़ दिया गया। देश के अलग-अलग हिस्सों से डिजिटल उपकरणों की अनुपलब्धता के चलते पढ़ाई से वंचित हो जाने की पीड़ा और हताशा के नतीजतन विद्यार्थियों की आत्महत्याओं की ख़बरें आईं। कुछ उच्च-न्यायालयों में ऑनलाइन कक्षाओं के ख़िलाफ़ मुक़दमे दायर किये गए। विरोध के चलते कहीं राज्य सरकार ने ख़ुद इन कक्षाओं पर आंशिक रोक लगाई। दिल्ली उच्च-न्यायलय ने हाल ही में इन कक्षाओं के लिए विद्यार्थियों को ज़रूरी आर्थिक/सामग्री सहायता नहीं दिए जाने को क़ानून का उल्लंघन क़रार दिया, हालाँकि अख़बारों में इस फ़ैसले को निजी स्कूलों के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के बच्चों के संदर्भ में ही अधिक व्याख्यायित किया गया। इतने अर्से में अधिकतर शिक्षक साथी व विद्यार्थी अपने अनुभव के आधार पर भी इस बात को पहचान चुके हैं कि इसमें निहित नाइंसाफ़ी के अलावा, ऑनलाइन पढ़ाई एक दोयम दर्जे की प्रक्रिया है। इधर विद्यार्थी अपनी आर्थिक परिस्थितियों के संकट के दौरान इस असंभव चुनौती से उपजे मानसिक तनाव का शिकार हो रहे हैं; उधर कभी न रुकने वाले डिजिटल संदेशों-आदेशों व त्वरित कार्यवाही की माँग के अधीन होकर शिक्षक अपने निजी जीवन, स्वास्थ्य, सुकून और न्यूनतम अधिकारों तक को खो रहे हैं। डिजिटल पढ़ाई की कामयाबी के झूठे आँकड़ों को पेश करने का प्रशासनिक दबाव इस क़दर हावी हो गया कि कुछ सार्वजनिक स्कूलों ने उन बच्चों को दाख़िला तक देने से मना कर दिया जिनके परिवार के पास स्मार्टफ़ोन नहीं था! तथ्यों व इंसाफ़ के उसूलों से परे जाकर डिजिटल-ऑनलाइन पढ़ाई को थोपने और कामयाब सिद्ध करने की इस ज़िद के चलते शिक्षा के अधिकार के बचे-खुचे दम का निकलना भी तय ही था। इन तमाम क़ानूनी व शैक्षिक विसंगतियों के बावजूद व्यवस्था बदस्तूर अपनी हाथी की चाल चली जा रही है। उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। सीबीएसई ने फ़ीस की माँग करके यह साफ़ कर दिया है कि चाहे कुछ हो जाये, उसे पैसे वसूलने से मतलब है और परीक्षायें वैसे ही कराई जाएँगी। विभिन्न परीक्षाओं को टालने की याचिकाओं पर सरकार व कोर्ट के अबतक के रुख़ ने भी यह साफ़ कर दिया है कि इंसाफ़ या बराबरी जैसे तुच्छ मूल्यों को देश के सुविधा संपन्न वर्गों के विकास तथा वैश्विक सूपरपॉवर बनने की महत्वाकांक्षा के रास्ते में आने नहीं दिया जायेगा। यह एक क्रूर विडंबना नहीं तो क्या है कि लक्षद्वीप जैसी जगहों के, जहाँ कोरोना के कोई प्रामाणिक केस नहीं हैं, सभी स्कूलों को जबरन बंद रखकर वहाँ के बच्चों का शिक्षा का अधिकार छीन लिया जाता है, मगर वंचित विद्यार्थियों की स्थिति से बेफ़िक्र होकर ऑनलाइन पढ़ाई को प्रामाणिक स्थापित करके शैक्षिक सत्र को नियमित परीक्षा तक अंजाम देने का फ़ैसला लिया जाता है! यानी सत्ता वंचित-शोषित वर्गों के बच्चों से साफ़तौर से कह रही है कि उन्हें तो अपनी पढ़ाई रोकनी होगी मगर उनका ख़याल रखने के लिए सुविधा संपन्न व शोषक वर्गों के बच्चों की पढ़ाई क़तई रोकी नहीं जाएगी। 

आख़िर क्या हो जाता जो बराबरी और इंसाफ़ की ख़ातिर सभी राज्य इस साल को ज़ीरो सत्र घोषित कर देते? जब सबके साथ एक जैसा बर्ताव होता तो सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों को भी अपने बच्चों के 'पिछड़' जाने का डर नहीं सताता। जब स्कूल खुलते तो सब बच्चे औपचारिक ढाँचे में उसी जगह होते जहाँ वो पहले थे। और कुछ नहीं तो इत्मीनान तो होता! सभी स्थानीय निकाय, राज्य और केंद्र बच्चों की सेहत पर पूरा ध्यान दे सकते थे। यह घोषित किया जा सकता था कि जिस भी तरह से और जो भी पढ़ाई होगी उसके आधार पर न ही मूल्याँकन किया जायेगा और न ही उसे पूर्ण माना जायेगा। इसे दोहराव एवं सुधार का सत्र घोषित किया जाता तो शैक्षिक सार्थकता भी होती और इंसाफ़ भी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी जिस अनुभवजनित अधिगम का जुमला इस्तेमाल किया गया है, ज़ीरो सत्र के संदर्भ में उसे पर्याप्त रूप से आज़माया व अपनाया जा सकता था - बच्चों से उनके अनुभवों को लेकर बातचीत की जाती और उसे संवेदना, सहानुभूति, समानुभूति व सामाजिक विश्लेषण के लिए प्रयोग में लाया जाता। सत्र ज़ीरो होता, शिक्षा नहीं। बल्कि सत्र व परीक्षा की सीमाओं से बाहर आकर वो गहरा जाती। मगर शायद यही तो उन्हें बर्दाश्त नहीं है। इसका क्या मतलब है कि जो राज्य सरकारें व केंद्र सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश व क़ानूनी बाध्यता के बावजूद स्कूली बच्चों को मिड-डे-मील तक मुहैया नहीं करा सकीं, वो ऑनलाइन कक्षाओं की चिंता में दिन-रात लगी रहीं? एक सीधा व बड़ा कारण शिक्षा से दूर, डिजिटल उपकरणों, इंटरनेट व डाटा कंपनियों के बढ़ते राजनैतिक शिकंजे तथा व्यापारी हितों में नज़र आता है। आज देश के मेहनतकश वर्ग को मजबूर किया जा रहा है कि वो अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए डिजिटल साधनों में निवेश/ख़र्चा करे, चाहे इसके लिए उसे अपना पेट काटना पड़े या उधार लेना पड़े। इसके बाद भी 'सफलता' की कोई गारंटी नहीं है। कुछ दिनों बाद शिक्षा के प्रति अपना समर्पण व जज़्बा साबित करने के लिए उससे एक नई माँग की जाएगी। शर्तें बदलती रहेंगी, बेदख़ली का नियम वही रहेगा। कभी सीधा प्रतिबंध, कभी अँगूठा काटने की दक्षिणा, कभी अनजान भाषा तो कभी 'बेजान' भाषा, कभी सुदूर संस्थान, कभी संस्थानों में अपमान, कभी ऊँची फ़ीस, कभी मूर्त-अमूर्त बलिदान। ऑनलाइन व डिजिटल पढ़ाई इस परंपरा का ताज़ा हथकंडा है। इसे ख़ारिज किये बिना शिक्षा आज सबकी मुक्ति का साधन नहीं बन सकेगी। 

पुनश्चः 
एक रेल है जिसे ए सी डिब्बों में बैठे कुछ लोग तेज़, और तेज़ दौड़ाना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें दूसरी रेलों से मुक़ाबला करना है, क्योंकि उन्हें तेज़ रफ़्तार में मज़ा आता है। इस रेल के कुछ डिब्बों में लोग बिना खाना-पानी के ठुँसे हुए हैं, उन्हें बीच-बीच में ए सी वाली सवारियों की सेवा के लिए बुलाया जाता है। कुछ लोग लटके हुए हैं और तेज़ गति के चलते अपना संतुलन खोकर गिर रहे हैं, मर रहे हैं। कुछ लोग बाहर, रास्ते में इंतज़ार कर रहे हैं मगर रेल उनके लिए रोकी नहीं जा रही है। कुछ चलती रेल में चढ़ने की कोशिश करने में अपनी निष्ठा प्रकट कर रहे हैं। इनमें से अधिकतर चढ़ नहीं पाते, कई मारे जाते हैं। जो चढ़ जाते हैं वो अपनी व नीचे रह गए दूसरों की नज़र में रेल की रफ़्तार और मंज़िल को जायज़ ठहराते हैं। रेल के ए सी डिब्बों में पहले-से बैठे लोग उन्हें बताते हैं कि वो भी एक दिन इसी तरह जद्दोजहद करके और जान की बाज़ी लगाकर चढ़े थे, जबकि सच तो यह है कि वो शुरु से ही वहाँ सवार हैं। कुछ सरफिरे रेल के रास्ते में आकर उसे रोकना चाहते हैं। इनमें से भी अधिकतर को रेल के नीचे कुचल दिया जाता है। वहीं कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इस रेल से कोई नाता नहीं रखना चाहते हैं, जोकि बस अपनी दुनिया में अमन-चैन से रहना चाहते हैं। मगर ये रेल इन्हें भी नहीं बख़्शती। इनके खेत-खलिहानों को रौंदती हुई, जंगल, पहाड़ों, नदियों से अपनी हवस मिटाती हुई, तबाही मचाते हुए, उन्हें उजाड़ते हुए ग़ुज़रती है। हमें इस दुष्ट रेल को रोकना होगा, इसकी रफ़्तार, दिशा और मंज़िल बदलनी होगी। हम अंदर ठुँसे, लटके, नीचे खड़े और रास्ता रोकना चाह रहे लोग ए सी डिब्बों में बैठे लोगों से कहीं ज़्यादा हैं, और एक हो जायें तो कहीं मज़बूत। हमें इसे अपने क़ब्ज़े में लेना होगा, इसका इंजन, इसके संचालक, इसकी संरचना को बदलकर इसे सबके लिए आरामदायक बनाना होगा। यह मद्धम चाल चलेगी, सबके लिए रुकेगी, किसी से होड़ नहीं करेगी, तो दुर्घटना भी नहीं होगी तथा पर्यावरण की क्षति भी न्यूनतम होगी। रही बात इसके अंदर की जगह की, तो ए सी डिब्बों को सुंदर, सर्वजन डिब्बों में बदलकर हमें पता चलेगा कि इसमें सबके लिए गरिमापूर्ण जगह है। हमें शिक्षा की अन्यायपूर्ण और विध्ध्वंसकारी रेल के भी नक़्शेक़दम को बदलकर उसे बराबरी, न्याय और मेल-मिलाप की ख़ूबसूरती पर लाना होगा। अन्यथा इस रेल का पटरी से पूरी तरह उतरना तय है।    

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