Thursday 1 February 2024

गणतंत्र दिवस समारोह में उड़ा संविधान, स्वतंत्रता आंदोलन और उसके अग्रणियों के मूल्यों का मखौल


 इस बार स्कूल में गणतंत्र दिवस समारोह की शुरुआत ही अयोध्या में निर्माणाधीन राम मंदिर में आयोजित हालिया अनुष्ठान को आस्थापूर्वक संबोधित करती हुई एक सांस्कृतिक प्रस्तुति से हुई। इसके बाद दो-तीन प्रस्तुतियाँ ही और हुई थीं कि निगम पार्षद महोदया को बात रखने के लिए आमंत्रित किया गया (क्योंकि उन्हें जल्दी जाना था)। उन्होंने अपनी बात 'भारत माता की जय' और 'वन्दे मातरम' के 'जयकारों' से शुरु की तथा इसी कड़ी में उपस्थित छात्राओं से 'जय श्री राम' का जयकारा लगवाया। मैंने अपने लगभग 25 साल के शैक्षणिक अनुभव में किसी जनप्रतिनिधि द्वारा स्कूल प्रांगण में पंथनिर्पेक्षता के संवैधानिक मूल्य के उल्लंघन का ऐसा निर्लज्ज व्यवहार पहले नहीं देखा था। एक विडंबना यह है कि निगम पार्षद उस राजनैतिक दल की प्रतिनिधि नहीं हैं जिसे धर्म के नाम पर विभाजनकारी राजनीति करने व राजसत्ता का साम्प्रदायिक उपयोग करने के लिए जाना जाता है। दूसरी विडंबना यह है कि ऐसा आचरण एक जनप्रतिनिधि ने संविधान के लागू होने से जुड़े राष्ट्रीय पर्व के मौके पर मुख्य-अतिथि की भूमिका निभाते हुए पेश किया। हालाँकि, गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम में धर्म-विशेष से जुड़ी प्रस्तुति शामिल करके स्कूल इस संविधान-विरोधी कृत्य के फलीभूत होने में सक्रिय रूप से संलिप्त रहा। स्कूल ने वो ज़मीन तैयार करके दी जिसपर यह बीज बोया जाना अवश्यंभावी हो गया। 


यह हम जैसे लोगों की बौद्विक नाकामी व तैयारी की कमी का एक और सबूत है कि उस वक़्त स्तब्ध व क्षुब्ध रह जाने के चलते भी मैं कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पाया। बाद में संचालन कर रही शिक्षिका व कुछ अन्य शिक्षिकाओं से अपनी मनःस्थिति साझा की तो वो सब इस बात से सहमत थीं कि पार्षद को सार्वजनिक स्कूल में धार्मिक क़िस्म का जयकारा/नारा नहीं लगाना चाहिए था। बल्कि प्रिंसिपल महोदया ने तो मेरे कहने से पहले ही मुझसे निगम पार्षद के उस व्यवहार के प्रति अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर दी। उन्होंने आगे जाते हुए यह भी बताया कि वो निगम द्वारा विद्यार्थियों की गतिविधि के नाम पर राम से जुड़ा (ऑनलाइन) अभ्यास भेजने को लेकर कितनी असहमत थीं। 

भले ही हम सार्वजनिक स्कूलों के धर्मनिरपेक्ष रहने के प्रति संवैधानिक ज़िम्मेदारी के विषय पर शिक्षकों (के एक वर्ग?) की सोच को उचित नहीं तो मासूम मान कर संतोष कर लें, लेकिन हक़ीक़त यह भी है कि हम ख़ुद अपने स्कूलों में स्वतंत्रता दिवस तथा गणतंत्र दिवस के समारोहों के स्वरूप. स्वभाव व संदेश के बीच फ़र्क़ नहीं कर पाते हैं। जो और जैसे गीत, भाषण, नृत्य आदि स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य पर तैयार किए जाते हैं, ठीक वैसी ही प्रस्तुतियाँ गणतंत्र दिवस के अवसर पर भी होती हैं। जैसे कि इन दोनों दिवसों, इनकी ऐतिहासिकता और इनके महत्त्व में कोई अंतर ही न हो। गणतंत्र दिवस के समारोहों में न शासन/समाज/राजनीतिक व्यवस्था के तौर पर गणतंत्र के अर्थ पर कोई बात होती है, न संवैधानिक मूल्यों पर, न संविधान सभा पर, न अधिकारों, नीति निदेशक तत्वों पर, और-तो-और, न ही डॉक्टर अंबेडकर की ऐतिहासिक भूमिका पर। हम विद्यार्थियों को यह समझाने की ज़हमत भी नहीं उठाते कि संविधान ने हमारे देश को उसके पुरातन रूप से अलग करके कैसे नवनिर्माण का उद्देश्य रखा, या ये कि एक गणतंत्र कैसे और क्यों फ़ौज, एक-पार्टी, धर्मगुरुओं आदि द्वारा संचालित-नियंत्रित राज्य-व्यवस्थाओं से अलग व बेहतर है। शायद इस बारे में हमारी ही समझ विकसित न हो, या फिर हमें ख़ुद गणतंत्र में विश्वास न हो। हो सकता है कि एक शिक्षक के तौर पर हमने गणतंत्र पर बच्चों से बात करने, उन्हें उसकी खूबियाँ समझाने का शिक्षणशास्त्र विकसित न किया हो और इसलिए इस विषय में कुछ भी सार्थक कहने में संकोच महसूस करते हों। ऐसे में 'शहीदों/स्वतंत्रता सेनानियों/भारत माता' आदि के नाम के जयकारे लगाना अधिक सुलभ विकल्प है। फिर इसे, हमारी स्कूली व्यवस्था की इसी अर्से से चली आ रही सांस्कृतिक-बौद्धिक नाकामी के चलते भी, सस्ती लोकप्रियता भी हासिल है। 

यह एक क्रूर त्रासदी है कि स्कूलों में भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस जैसे स्वतंत्रता आंदोलन के जिन अगुआओं के नाम के जयकारे लगाए-लगवाए जाते हैं, उनके विचारों और आदर्शों के बारे में ख़ामोशी बरती जाती है। इस बात का अध्ययन करने या विद्यार्थियों तक पहुँचाने की कोई कोशिश नहीं की जाती है कि ये 'देशभक्त' इस बारे में क्या राय रखते थे कि आज़ाद भारत में राज्य सत्ता, राजनीति और धर्म के बीच में क्या संबंध रहने चाहिए या भारत के लिए उनके सपने की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में शिक्षा, अर्थ-व्यवस्था जैसे अहम आयामों का स्वरूप क्या था। यक़ीनन, स्वतंत्रता आंदोलन के लगभग हर प्रमुख नेता ने तो धर्म को राज्य-व्यवस्था से दूर रखने की पुरज़ोर वकालत करते हुए ऐसा न करने के ख़तरे गिनाए थे। (वहीं, जिनका राष्ट्रीय आंदोलन में नगण्य या नकारात्मक योगदान था, आज वही ताक़तें धर्म-आस्था की सवारी करके राष्ट्रवाद का प्रपंच रच रही हैं।) इस तरह, मूल्यों के धरातल पर ये नारे, जयकारे और आयोजन खोखले ही होते हैं। दरअसल, इसे स्कूलों की नाकामी के बदले स्कूलों द्वारा सत्ता को जवाबदेही से बचाने व मेहनतकश व शोषित वर्गों से आने वाले विद्यार्थियों की चेतना को सुप्तावस्था में रखने की कामयाबी के रूप में देखना ज़्यादा सटीक होगा। इस तरह हमारे स्कूलों में गणतंत्र दिवस का आयोजन हो या स्वतंत्रता दिवस का आयोजन, इनका मक़सद बच्चों को स्वतंत्रता या गणतंत्र के मूल्यों के प्रति शिक्षित करना नहीं है, बल्कि तमाशा करने वाले तथा तमाशबीन बनाना है। ठीक उसी तरह जैसे आजकल धार्मिक अनुष्ठान के सीधे व सतत प्रसारण का उद्देश्य है। एक ऐसा तमाशा जिसकी चकाचौंध और तालियों के शोर के पीछे तमाशबीनों की हक़ीक़त को देखने-सुनने और अपनी स्थिति के बारे में सोचने-समझने की आदत ही नहीं क्षमता भी ख़त्म हो जाए। 

कूपमंडूक आस्था व धार्मिक असहिष्णुता के विषैले प्रवाह के माहौल में हथियार डालती हमारी शिक्षा व्यवस्था आज एक ऐसे दमघोंटू शिकंजे में जकड़ती जा रही है जो, अगर इसका प्रतिकार नहीं किया गया तो, शीघ्र ही इसे बौद्धिक फ़ालिज की स्थिति में पहुँचा देगी। हालाँकि, चाहे वो दैनिक सभाओं में प्रार्थना जैसी चीज़ का अनिवार्य रूप से होना या स्वरूप हो या फिर कक्षाओं एवं प्रांगण में लगे धार्मिक प्रतीक हों, हमारे अधिकतर सार्वजनिक स्कूल पहले ही धर्मनिरपेक्षता के पालन का उदाहरण पेश नहीं करते थे। फिर भी, आज के आक्रामक धार्मिक प्रतीकात्मक्ता के प्रायोजित माहौल में भी वे काफ़ी हद तक इस वीभत्स प्रदर्शन से बचे हुए हैं। इसका एक श्रेय शिक्षकों के एक बड़े वर्ग के बीच मौजूद कुछ न्यूनतम क़िस्म की अकादमिक, संवैधानिक तमीज़ को जाता है। यही कारण है कि 22 जनवरी के चक्रवाती चक्रव्यूह (और संभवतः उससे सहमत/उत्साहित होने) के बाद भी सार्वजनिक स्कूलों में अधिकतर शिक्षकों की गाड़ियों या पहनावे पर वो विजयी प्रतीक चिन्ह नज़र नहीं आए। मगर, केवल धार्मिक चिन्हों व नारों के स्तर पर ही नहीं, बल्कि आपसी संबंधों के स्तर पर भी, हम सार्वजनिक स्कूलों में विद्यार्थियों के बीच आक्रामक धार्मिक पहचान का तेज़ी से होता प्रादुर्भाव देख रहे हैं। उधर निजी स्कूलों का आलम ये है कि कई जगह तिरंगे के दिखावे को अंततः छोड़कर भवन के ऊपर विशालकाय धार्मिक ध्वज लगा दिए गए हैं। पीछे मुड़कर देखने पर हम कह सकते हैं कि 'भारत माता की जय' और 'वंदे मातरम' के हिंसक उद्घोषों की प्राकृतिक परिणीति 'जय श्री राम' या इस जैसे किसी अन्य आक्रामक जयकारे में होना तय थी। इसी तरह का क्रमिक विकास झंडों के विषय में दिखाई देता है। 
                        
यह चिंताजनक है कि शिक्षा का धर्म निभाने का दावा करने वाले हम शिक्षक यह नहीं देख पा रहे हैं कि धर्म-संस्कृति की दुहाई देते या राग अलापते हुए, आज ज्ञान कैसे उन्मादी भीड़ व राजकीय दमन के डर के आगे हाथ जोड़े दबा-सहमा खड़ा है। अपनी अस्मिता के लिए, अपने विद्यार्थियों के अधिकारों के लिए और इस देश-दुनिया की बेहतरी के लिए, हमें साथ आकर अपनी चुप्पी तोड़नी होगी और इस मूर्खता व दबंगई को ललकारना होगा। कहते हैं कि झूठ के पैर नहीं होते; और इधर हमारे पास तो शब्द और सच की ताक़त भी है। सत्यमेव जयते!     

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