Wednesday 12 February 2014

बढ़ता समय, घटता चिंतन!

दिल्ली प्रशासन ने पिछले दिनों स्कूलों में शिक्षकों को प्रतिदिन स्कूल समय से ढाई घंटे अतिरिक्त रुकने का अपना तुग़लकी फरमान जारी किया।  हालाँकि इसे शिक्षकों के भारी विरोध के कारण टालना पड़ा  पर सरकार इसे नये सत्र से लागू करने का मन बना रही है। लोक शिक्षक मंच सरकार के इस तुग़लकी फरमान पर अपना विरोध दर्ज करता है और सरकार से मांग करता है कि इस सन्दर्भ में कोई भी फ़ैसला लेने से पहले वो शिक्षकों से बात करें। 
इस फ़ैसले के सन्दर्भ में हमने अलग-अलग जगहों पर काम करने वाले शिक्षक साथियों से बात की ताकि सरकार के अचानक किये जाने वाले फैसले के पीछे की राजनीति और मंशा को समझा जा सके। कुछ शिक्षक साथियों का कहना है कि वो शिक्षकों के लिए हफ्ते में 45 घंटे स्कूल में बिताने के निर्णय का समर्थन करते हैं परन्तु जिस तरह से इसको बिना किसी तैयारी के लाद दिया गया है उस पर सोच-विचार ज़रूरी है। बिना संसाधनों और उपयुक्त शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात के इस तरह के फैसले लाद देना ठीक नहीं है। वहीं शिक्षक साथियों के एक अन्य समूह का कहना है कि पहले यह सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि जो समय स्कूल में आज ही उपलब्ध है उसे पूर्णतः शिक्षण को समर्पित करने की परिस्थितियां तो प्रशासन उपलब्ध कराए। उनका साफ़ कहना था कि अगर वर्तमान की तरह विद्यार्थियों के साथ मिलने वाले शिक्षण समय को ग़ैर-शैक्षणिक ज़िम्मेदारियों के तले मात्रात्मक व गुणात्मक स्तरों पर प्रभावित होने दिया जाता रहेगा तो स्कूल के बाद चाहे कितने ही घंटे रुकने का प्रावधान हो, हमारे विद्यार्थियों के साथ अन्याय होता रहेगा। अर्थात, बढ़ा हुआ समय केवल हाथी के दाँत का काम करेगा और लोगों में भ्रम बनाए रखेगा।  
हमारा मानना है कि शिक्षा अधिकार क़ानून (RTE Act) में शिक्षण कार्य के, शिक्षण की तैयारी का समय मिलाकर, हफ्ते में 45 घंटे होने की बात तो है पर इसे रूढ़ तरीक़े से परिभाषित नहीं करना चाहिए। शिक्षण एक गहरी बौद्धिक प्रक्रिया है। खासतौर से उन संदर्भों में जब आप लगातार 4-5 घंटे पढ़ाते हैं - यह रेखांकित करने की ज़रूरत है कि एक प्राथमिक शिक्षक पूरे स्कूली दिन, अर्धावकाश को छोड़कर, लगातार शिक्षण करता है - और स्कूल के बाद न सिर्फ पुस्तकालयों, अकादमिक-बौद्धिक गतिविधियों में अपने शिक्षण हेतु समझदारी बढ़ाते रहते हैं, बल्कि समाज में अपने जनप्रतिबद्ध बुद्धिजीवी होने के दायित्व के नाते भी इनमें सक्रिय रहते हैं। शिक्षक का 'घूमना-फिरना', चाहे वो प्रकृति और कला के क्षेत्र में हो, चाहे सामाजिक-बौद्धिक क्षेत्रों में, उसके कर्म का अनिवार्य अंग है और उसके शिक्षण को सीधे-सीधे गहराई तथा व्यापकता देता है। उसे स्कूल में घेरने की चिंता से लिया गया कोई भी क़दम न सिर्फ शिक्षा की असीम सम्भावना को समेट देगा बल्कि समाज को ग़ैर-राजनैतिक बनाने के उस षड्यंत्र में सहयोग करेगा जिसकी सुनियोजित कोशिशें तमाम नवउदारवादी ताक़तें कर रही हैं। दूसरी ओर एक शिक्षक की यही भूमिका हमें मजबूर और प्रेरित करती है कि हम अपने स्कूलों और विद्यार्थियों के समुदायों से एकात्मता बनाएँ रखें। इसके लिए हमें स्कूल के बाद और छुट्टियों के समय में अपने कर्मक्षेत्रों से सहज और मानवीय संबंधों की खातिर जीवंत सम्पर्क बनाये रखने की ज़रूरत होती है। ये काम स्कूलों में ढाई घंटे अतिरिक्त रुकने से इसलिए बाधित होगा कि ऊर्जा व समय की सीमाओं के कारण निजी प्राथमिकताएं शिक्षक की सार्वजनिक भूमिका के लिए कोई जगह नहीं छोड़ेंगी।

हमें यह भी जाँच करनी चाहिए कि केंद्रीय विद्यालय जैसे संस्थानों में जब से शिक्षकों का समय बढ़ाया भी गया है तब से शैक्षिक माहौल और शिक्षकों की आत्म-छवि व बौद्धिकता पर इसका क्या असर हुआ है। केंद्रीय विद्यालयों में पढ़ाने वाले कुछ साथियों के साथ हुई बातचीत से यह ज्ञात होता है कि परीक्षाओं में उच्च-प्रदर्शन के बावजूद वहाँ कार्य की परिस्थितियां शिक्षकों की बौद्धिक स्वायत्ता के प्रतिकूल हैं। रही बात परिणामों की, तो वो तो समय बढ़ने से पहले ही ऐसे थे और वैसे भी हम शिक्षा को परीक्षा व मूल्यांकन तक सीमित करके उसकी प्रक्रिया की लोकतान्त्रिक, वैचारिक और विविध दार्शनिक सम्भावनाओं को समाप्त करने के षड्यंत्र का हिस्सा नहीं बन सकते हैं। यह ज़रूर है कि औसतन उन स्कूलों में भौतिक परिस्थितियां दिल्ली सरकार या निगम के स्कूलों से बेहतर हैं। इस संदर्भ में भी उन शिक्षकों ने बताया कि अगर वो उस अतिरिक्त समय में कुछ पढ़ते थे तो उन्हें इससे हतोत्साहित किया जाता था और निर्देश दिया गया था कि वे अपनी लिखित रपट में सिर्फ यह लिखें कि उन्होंने कॉपियाँ जाँची या पाठ-योजना बनाई। बाद में उनकी इन्हीं दबाव में तैयार की गयीं झूठी रपटों को अदालत में प्रस्तुत करके प्रशासन यह सिद्ध करने में कामयाब रहा कि समय बढ़ाने से क्या फायदे हुए हैं! यहाँ हम देख सकते हैं कि प्रशासन को इससे मतलब नहीं था कि शिक्षक पढ़-लिखकर बौद्धिक-अकादमिक रूप से और समृद्ध हों; उसे अंततः स्कूल व शिक्षक को एक प्रबंधकीय अनुशासन में बाँधने की चिंता थी। साथियों ने यह भी बताया कि अक्सर वो कक्षा का समय आने से पहले ही निढाल हो जाते थे और नीरस अनुभव करते थे। केंद्रीय-विद्यालय के इस प्रसंग से हमें यह प्रश्न खड़ा करने में भी मदद मिलती है कि जिस व्यवस्था में शिक्षक की परिभाषा ही एक तय समय में एक तय पाठ को एक तय अर्थ-उद्देश्य से विद्यार्थियों तक हस्तांतरित करने वाले सरकारी/निजी मुलाज़िम की हो उसमें विद्यार्थियों के समाज-प्रतिबद्ध, चिंतनशील तथा कलात्मक विकास की कितनी गुंजाइश है और इन सम्भावनाओं से कितना विरोधाभास है।
 अनुभव यह बताता है कि खासतौर से दो पालियों के स्कूलों में शिक्षण का समय पर्याप्त नहीं है और इसका एक बड़ा कारण ग़ैर-शैक्षणिक कामों की ज़िम्मेदारी है। साथ ही स्कूलों में शिक्षकों के आपसी संवाद के सुनियोजित अवसर नहीं हैं, प्राथमिक शालाओं में तो बिलकुल नहीं। तो विद्यार्थियों के जाने के बाद अगर 45 मिनट-एक घंटा शिक्षक रूकते हैं तो इससे अकादमिक तैयारी के अलावा इन दोनों ज़रूरतों की भरपाई हो सकती है। मगर एक तो हमें क़ानून की परिभाषा ऐसी करनी है कि कोई ग़ैर-शैक्षणिक काम शिक्षक के ज़िम्मे न हो और दूसरे वर्तमान नियम भी इस बढ़ौतरी को शैक्षणिक तैयारी के लिए ही प्रस्तावित करता है - सो हमें यह तर्क नहीं देना चाहिए कि विद्यार्थियों के जाने के बाद हम स्वयं पर थोपे गये लिपकीय काम कर पाएँगे, बल्कि हमें इन ग़ैर-शैक्षणिक कामों की बात ही नहीं करनी चाहिए। रही बात आपसी संवाद और स्कूल पर चर्चा करने की तो ये ज़रूर अंजाम दिया जा सकता है पर इसके लिए एक तो दो पालियों की व्यवस्था अनुपयुक्त है और एक घंटे का समय काफी होना चाहिए - वैसे भी ये रोज़ नहीं होगा - और दूसरे, बिना अभिभावकों व सामुदायिक भागीदारी के इस चर्चा को किसी लोकतान्त्रिक मुक़ाम पर नहीं ले जाया सकेगा और इसमें दो पाली की व्यवस्था फिर बाधा है व अभिभावकों की दैनिक परिस्थितियों के चलते ये भी कोई रोज़ होने वाली प्रक्रिया नहीं होगी। उदाहरण के तौर पर अगर कमरों की समस्या के कारण आप अभिभावकों को अपनी पाली के समय में ही नाना प्रकार के कामों के लिए बुलाने को विवश होंगे तो इसका मतलब है कि आपका शिक्षण उसी तरह बाधित होता रहेगा - तो फिर सिवाय शिक्षकों को cordon off करने (घेरने) के उन्हें रोकने का क्या फायदा होगा? हमारे विद्यार्थी तो राज्य की नीतियों द्वारा उसी प्रकार उपेक्षित-प्रताड़ित होते रहेंगे जैसे अब हो रहे हैं। 
हम सरकार से मांग करते है कि इस अलोकतांत्रिक फैसले को तुरंत प्रभाव से रद्द किया जाए और साथ ही हम शिक्षकों पर अविश्वास करके हमें अपमानित करने की बजाए हमपर भरोसा करे कि हम कैसे अपने विद्यार्थियों को पर्याप्त समय, श्रेष्ठ समझ और मेहनत से तथा भरपूर स्नेह से पढ़ाएँ-सिखाएँ। हमें जब भी समय की कमी महसूस होगी हम अपना समय खुद ही बढ़ा लेंगे, जैसा कि हम, बग़ैर किसी आदेश-निर्देश के,आज तक करते आये हैं। 

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