Monday 11 August 2014

पिटते बच्चे ,परेशान शिक्षक, हैरान माँ -बाप

                                                                                                          राजेश 

आज सुबह एक बच्चे की ह्रदयविदारक चीखों ने सुबह की शांति को तोड़ा। बच्चा जो कि लगभग 5 -6 वर्ष का होगा लगातार अपनी माँ से विद्यालय न जाने कि ज़िद कर रहा था और माँ थी कि उसे स्कूल भेजने कि जिद पर अड़ी हुई थी। यह बच्चा दिल्ली के एक साधारण से निजी स्कूल में पढता है , लगातार रोते हुए कह रहा था कि   मैं स्कूल नहीं जाउंगा मैडम मुझे मारती है। विद्यालयों में बच्चों को पीटा जाना कोई बहुत असाधारण घटना नही है , यह विद्यालयों में जाने अनजाने होती ही रहती है और यह भी लोगों का पूर्वाग्रह ही है कि यह केवल सरकारी स्कूलों की संस्कृति में पाया जाता है। इस पर पड़ताल करने कि जरूरत है कि लगातार अदालतों के फैसलों तथा कानूनों के बाबजूद बच्चों को सजाएँ देना क्यों बदस्तूर जारी है। शिक्षक साथियों से बातचीत में वे बच्चे को गीली मिटटी  और खुद को कुम्हार की उपमा देते हैं और बताते हैं कि जिस प्रकार कुम्हार सख्त हाथों से गीली मिटटी को सुन्दर बर्तनों में बदल देता है उसी तरह से वे शिक्षकों की भूमिका को भी देखते हैं और वर्तमान दौर में विद्यार्थियों के निम्न प्रदर्शन का कारण वे इस तरह के कानूनों को बताते हैं जिस कारण से अब वे सीखने पर ध्यान न देने वाले बच्चों पर किसी भी प्रकार की सख्ती नहीं कर पाते हैं।
शिक्षकों के एक संगठन की और से जारी कि गयी बुकलेट  शिक्षक, विद्यार्थी और ... (शारीरिक दंड पर एक रपट पुस्तिका)   के एक सर्वेक्षण के अनुसार 57 प्रतिशत शिक्षकों की राय में शिक्षण में विद्यार्थियों पर नियंत्रण आवश्यक है वहीँ अपनी कक्षा के कुछ अभिभावकों के बीच किए गए एक सर्वे में इसी सवाल के जवाब में 89 प्रतिशत अबिभावकों ने नियंत्रण को जरुरी बताया। इसी प्रकार कक्षा में विद्यार्थियों द्वारा अनुशासन भंग करने के फलस्वरूप 21 प्रतिशत शिक्षकों ने डांटकर समझाने को चुना और कक्षा में खड़ा करने को 9 प्रतिशत शिक्षकों ने चुना और सिर्फ 4 प्रतिशत शिक्षकों ने ही पीटने का चुनाव किया वहीँ अभिभावकों में से किसी ने भी पीटने को नही चुना हालांकि सबसे अधिक 83 प्रतिशत अभिभावकों ने भी डाँटकर समझाने को ही चुना। मार खाकर विद्यार्थियों की सीखने कि क्षमता और उनके व्यवहार में सुधार होता है के जवाब में 54 प्रतिशत शिक्षक इसका जवाब नहीं में देते हैं जबकि 25 प्रतिशत का जवाब कुछ हद तक है इसी सवाल के जवाब में 89 प्रतिशत माता पिता सुधार की बात से इंकार करते हैं। 66 प्रतिशत शिक्षक स्वीकार करते हैं कि शारीरिक दंड का इस्तेमाल कभी कभार और बहुत कम करते हैं , जबकि 78 प्रतिशत अभिभावकों का भी मत है कि शिक्षकों को इसका इस्तेमाल कभी कभार ही करना चाहिए। कानून द्वारा शारीरिक दंड को प्रतिबंधित करने के औचित्य को लेकर 56 प्रतिशत अभिभावक इसकी जरुरत को कुछ कुछ महसूस करते हैं जबकि 38 प्रतिशत शिक्षकों ने यही विकल्प चुना और इसके अलावा 57 प्रतिशत शिक्षक दण्डित करने या न करने का पैमाना खुद तय करना चाहते हैं।सर्वेक्षण में शामिल 40 प्रतिशत से अधिक अभिभावक अनपढ़ हैं जबकि अधिकतर शिक्षक और अभिभावकों ने एक मत से लगभग एक सामान राय ही व्यक्त किया है। अब सवाल उठता है कि बच्चों को पालने वाले माँ बाप और उनको पढ़ाने वाले शिक्षक जब एक ही तरीके से सोचते हैं तो क्यों कानून अवधारणा अलग है और यह जरुरत महसूस नही करता है कि इस तरह के अहम मसले पर उनकी भी राय को शामिल कर लिया जाए और क्या यह सरकार की जिम्मेदार नहीं बनती है कि किसी भी कानून को लागू करने से पहले उससे जुड़े हुए सभी लोगों की एक बेहतर समझदारी बनाई जाए और इसी क्रम में क्या देश भर में चल रहे शिक्षक प्रशिक्षण केन्द्रों की जिम्मेदारी नही बनती है कि वो शिक्षकों को शारीरिक दंड के प्रति जागरूक करें और कक्षा को नवीन पद्धति और सृजनात्मकता के साथ बच्चों के साथ किस प्रकार काम किया जा सकता है बताए। सरकारों के लिए भी यह एक सबक हो सकती है कि केवल शिक्षा अधिकार का खोखला कानून बना देने से ही बच्चों को शिक्षा नही मिल जाएगी बल्कि यदि बच्चों को एक सम्मानजनक जीवन जीने की शिक्षा देनी है तो इस दिशा में काम किये जाने की जरुरत है।              
इन सब के अलावा एक और बात की भी पड़ताल करने की जरुरत है की वो कौन लोग और संस्थाएं हैं जो की इसके पैरवीकार हैं और वो क्या कारण हैं कि उनको इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी दिखाई नही पड़ती है उनको ये बहुपर्ती स्कूली व्यवस्था भी नही दिखती है, जहाँ खुलेआम शिक्षा बाजार में ख़रीदे बेचे जाने वाले सामान में बदली जा रही है और समाज के सबसे गरीब और उपेक्षित बच्चों के लिए सरकार ने सरकारी स्कूलों का जर्जर होता हुआ ढांचा रख छोड़ा है जहाँ स्कूल का मतलब एक सुविधा विहीन इमारत है। ऐसा नही है कि कुछ दशक पहले सुविधाएँ पूरी थी पर शिक्षा एक मानवीय क्रियाकलाप है और इसी के फलस्वरूप शिक्षक और विद्यार्थी के बीच एक सुदृढ़ मानवीय रिश्ते थे और इसी के फलस्वरूप सरकारी विद्यालयों के बच्चे भी कुछ संख्या में ही सही नौकरियों की लाइन में आ ही जाया करते थे। 
नवउदारवाद के दौर में जब विश्वबैंक ने सरकार की नीतियों को प्रभावित करना शुरू किया उसके फलस्वरूप भारत में यह जरुरी था कि जनता का जो भरोसा इन सरकारी विद्यालयों को प्राप्त है उसको नष्ट किया जाए इसके लिए उसने तरह तरह के समूहों के द्वारा शिक्षकों को नकारा साबित करने का अभियान चलवाया और इसी अभियान में से एक अभियान यह शारीरिक दंड को प्रतिबंधित करने की वकालत भी थी जिसमें यह साबित किया गया कि शिक्षक बर्बर और अमानवीय है और इस तरह के कानून से ही बच्चों को बचाया जा सकता है। इस प्रकार शिक्षक और विद्यार्थी के बीच के सहज मानवीय सम्बन्ध में एक दरार ला दी गयी है जिसका असर विद्यालयों में दिखाई भी दे जाता है और इसी का असर है कि शिक्षकों से बातचीत में वे काफी निराश दीखते हैं।  
  
अब सवाल उठता है कि क्या कारण है कि आज अदालतें एक पक्ष में हैं और अभिभावक और शिक्षक दूसरे पक्ष में। क्या कारण है कि शिक्षक अतीतजीवी होकर पिछले को ही बेहतर मान रहे हैं और नवाचारों को सिरे से ख़ारिज कर रहे हैं। इसमें जो सबसे महत्वपूर्ण बात है कि किसी भी कानून को लागू करने से पहले जो सामाजिक तैयारी करने कि आवश्यकता होती है और वक्त के साथ जिन परिवर्तनों को स्वाभाविक तौर पर समाज का हिस्सा बन जाना चाहिए उनके बिना ही मूल्यों को कानून बना कर जल्दी पा लेने कि जल्दबाजी है। इस पूरी घटना पर शिक्षक रुष्ट है कि उनके अधिकार उनसे छीने जा रहे हैं चूँकि मिलाजुलाकर शिक्षा व्यवस्था में बच्चे ही उनकी पूँजी थे और अविभावक परेशान कि बिना सख्ती किए बच्चे पढ़ेंगे सीखेंगे कैसे ?                                                                                                             

1 comment:

firoz said...

shodh aur anubhv donon btate hain ki jhan sharirik dnd ka istemal sveekrt hota hai vhan iska kinhin khas prshthbhumiyon ke bchchon pr tulnatmk roop se adhik brpa hona nishchit hai. mujhe khud aabhas hota hai ki un durlbh mauqon pr jb kinhin aaksmik ya poorvhgrhjnit karnon se kisi vidyarthi ya uske mata-pita se smbndhon mein ek avishvas/drar aa jati hai to ek stta rkhne wale shikshk ke nate apni shkti ka durupyog krne ki durbhavna ko qabu mein rkhne ki schet koshish krni pdti hai.