Monday 8 August 2016

शिक्षा और शिक्षकों का अपमान करने वाली नई शिक्षा नीति के प्रारूप का विरोध करो!


 साथियों,
अपने स्कूलों में हो रहे बदलावों पर हम लगातार अपनी सहमति-असहमति व्यक्त करते रहे हैंI इनमें पाठ्यचर्या को हल्का करना, बच्चों का टेस्ट लेकर उन्हें अलग-अलग समूहों में बाँटना, केंद्र सरकार के निर्देशानुसार राष्ट्रीय कौशल अहर्ता फ्रेमवर्क (NSQF) के तहत अब निचली कक्षाओं से ही रिटेल, टूरिज्म, सिक्यूरिटी जैसे वोकेशनल कोर्स पढ़ाया जाना, शिक्षकों की जवाबदेही बढ़ाने के लिए CCTV, बायोमेट्रिक हाज़िरी और बच्चों के परिणामों को इस्तेमाल करना और  आधार कार्ड को स्कूलों में प्रत्येक चीज़ के लिए अनिवार्य किया जाना शामिल हैI इन प्रस्तावों को लागू करने में केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार की तत्परता और गति हम लोग भुगत ही रहे हैं| इसी सन्दर्भ में केंद्र सरकार की नयी शिक्षा नीति 2016ऐसे अनेक प्रस्तावों को और बढ़ावा देने जा रही है|
इस पर्चे के माध्यम से हम नयी शिक्षा नीति 2016 के ड्राफ्ट में दिए गए प्रस्तावों से जुड़े कुछ सवाल साझा कर रहे हैंI इसके प्रारूप को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की वेबसाइट पर देखा जा सकता है और आप इसपर अपनी ऑनलाइन या लिखित प्रतिक्रिया 15 अगस्त तक भेज सकते हैंI हम इस पर्चे में नीति के वभिन्न आयामों को पाठकों के लिए शब्दश: लिख रहे हैं और साथ ही अपनी आपत्ति भी व्यक्त कर रहे हैं|

वोकेशनल कोर्सों पर ज़ोर या बाज़ार के लिए सस्ता श्रम तैयार करने की कवायद

शिक्षा और प्रशिक्षण के माध्यम से हमारे देश का युवा कौशल और ज्ञान से सुसज्जित हो ताकि वह देश के कार्यबल में शामिल हो सके| हमारी शिक्षा व्यवस्था से निकलने वाले अधिकांश लोगों में रोजगार योग्य कौशलों का अभाव पाया जाता है| बहुत से ग्रेजुएट और पोस्ट-ग्रेजुएट विद्यार्थी अपने-अपने कार्य क्षेत्रों में रोज़गार प्राप्त नहीं कर पाते| (NEP प्रारूप, अध्याय 2)

वोकेशनल व कौशल-विकास पर इतना ज़ोर दिया गया है और शिक्षा के वृहद, बौद्धिक व अकादमिक आयामों पर इतना कम कहा गया है कि इसे 'शिक्षा नीति' का दस्तावेज़ मानना ही मुश्किल है। समानता के प्रति भी कोई प्रतिबद्धता नहीं जताई गई है जिसके चलते असमानता व भेदभाव पर आधारित तरह-तरह के  निजी व सरकारी स्कूलों वाली वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में इस बात पर भरोसा नहीं किया जा सकता कि ये कोर्स, जैसा कि नीति का दस्तावेज़ कहता है, 'सभी के लिए' होंगे। उदाहरण के लिए, यह सवाल उठना लाज़मी है कि क्या निजी स्कूलों में भी इन कोर्सों को समान रूप से लागू किया जायेगा। अगर नहीं, तो फिर तो यह स्कूलों/शिक्षा द्वारा समाज में व्याप्त ग़ैर-बराबरी को बनाये रखने का ही तरीक़ा होगा। फिर हम विद्यार्थियों और ख़ुद को कैसे समझायेंगे कि शिक्षा वर्ग आदि से निरपेक्ष होती है? मेहनतकश वर्गों के बच्चे तो वैसे भी कम उम्र से काम-धंधों में लग जाते रहे हैंI तो यह कहने से क्या हासिल होगा कि इन बच्चों का स्तर कमज़ोर है इसलिए इन्हें मौलिक कौशल पढ़ाने होंगे अथवा इन बच्चों को निचली कक्षा से ही aptitude (अभिरुचि) टेस्ट के आधार पर बांटकर काम-धंधे के कौशल देने होंगे? फिर इसके लिए वैसे भी स्कूलों की क्या ज़रूरत रह जाती है? 'अभिरुचि' टेस्ट लेकर बच्चों की क्षमता पहचानने की जो बात की गई है वो मनोविज्ञान व शिक्षाशास्त्र की इस समझ के विपरीत है कि इन टेस्ट का कोई तथ्यात्मक आधार नहीं है और इनके आधार पर, ख़ासतौर से वंचित तबकों के बच्चों को चिन्हित करके वोकेशनल कोर्सों में धकेलना अनैतिक भी है। 
2016 की इस नीति में ‘बेरोज़गारी का डर’ निहित दिखता है| इस डर का आधार यह सच्चाई है कि आज भारत में रोज़गार का वृद्धि दर नेगेटिव है| जिस तेज़ी से लोग नौकरियों के लिए बाज़ार में उतर रहे हैं, उस तेज़ी से नौकरियां नहीं बढ़ रहीं| एक तरफ नौकरियाँ नहीं हैं, छोटे स्व-नियोजित व्यवसाय संकट में हैं और दूसरी तरफ यह कहा जा रहा है कि लोग इसलिए बेरोजगार हैं क्योंकि उनके पास कौशल नहीं हैं| इस झूठ का पर्दाफाश इस बात से हो जाता है कि आज प्रत्येक काम में skilling का नहीं deskilling का दौर है| ऐसी मोबाइल ओर कंप्यूटर तकनीकें आ रही हैं जिनके आधार पर यह दावा किया जा रहा है कि शिक्षक को सोचने या कुशल होने की ज़रूरत नहीं है| उसे बस निर्देशों का पालन करना है| ठीक वैसे ही जैसे दर्ज़ियों को ख़त्म करके मशीन चलाने वाले मज़दूरों से कपड़ा उत्पादन हो रहा है| जब समाज में हाथ के काम की कीमत नहीं है तो कल वोकेशनल कोर्स करके जाने वाले बच्चों की कीमत कैसे हो जाएगी?  

जवाबदेही के बहाने शिक्षकों को नियंत्रित करने की कोशिश

शिक्षा की खराब गुणवत्ता एक बड़ी चिंता का विषय है जिससे असंतोषजनक ज्ञानार्जन परिणाम सामने आते हैं| विद्यालयी शिक्षा की असंतोषजनक गुणवत्ता के लिए बहुत से कारक ज़िम्मेदार हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं: ऐसे विद्यालयों का बडी संख्या में मौजूद होना जो विद्यालयों के लिए निर्धारित मानकों और मानदंडों पर खरे नहीं उतरते; विद्यार्थियों और अध्यापकों की अनुपस्थिति, अध्यापकों के अभिप्रेरणा स्तर और प्रशिक्षण में गंभीर अभाव जिसके पररणामस्वरूप अध्यापक की गुणवतता और प्रदर्शन में कमी आना| (अध्याय 2) शिक्षकों में अनुशासनहीनताI (अध्याय 4)

यह पहला राष्ट्रीय स्तर का दस्तावेज़ है जिसमें शिक्षकों के लिए इतनी हतोत्साहित करने वाली भाषा का इस्तेमाल किया गया है। अपने विद्यार्थियों के सीखने के संदर्भ में हम शिक्षक न सिर्फ अपनी भूमिका का महत्व अच्छी तरह जानते हैं बल्कि शिक्षकों का विद्यार्थियों व समाज के साथ एक ऐतिहासिक जीवंत रिश्ता रहा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों के 'गिरते स्तर' पर कॉरपोरेट दुष्प्रचार व NGO द्वारा लगातार निकाली जा रही रपटों को आधार बनाकर जो माहौल बनाया जा रहा है उसके केंद्र में बच्चों के प्रति चिंता नहीं है, बल्कि उसका असल निशाना सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था व उसके शिक्षकों को नाकारा सिद्ध करके शिक्षा के बाज़ार का विस्तार करना है। शिक्षा व स्कूलों को महज़ परीक्षा परिणामों के उद्देश्य तक सीमित कर देना ही ख़तरनाक है। यह तर्क देना मक्कारी है कि परिणामों के लिए शिक्षक एकाकी रूप से ज़िम्मेदार हैं, जबकि बच्चों के सीखने और परिणामों पर उनकी आर्थिक-सामाजिक व स्कूलों की परिस्थितियाँ भी प्रभाव डालती है - और इन दोनों की ही ज़िम्मेदारी राज्य पर है। साथ ही पाठ्यचर्या का स्वरूप - जैसे भाषा, विषयवस्तु, संस्कृति आदि - कुछ पृष्ठभूमियों से आने वाले बच्चों के लिए अजनबी, यहाँ तक कि पराया तक हो सकता है, जोकि उनके 'सीखने' को बाधित करता है।
विद्यार्थियों के परिणामों के संदर्भ में शिक्षकों पर ग़ैर-शैक्षणिक कामों के बोझ के प्रति चिंता जताई गई है लेकिन शिक्षकों को इनसे मुक्त रखने के लिए कोई प्रतिबद्धता दर्ज नहीं की गई है। आज हम स्कूलों में देख रहे हैं कि शिक्षा अधिकार क़ानून द्वारा शिक्षकों को अन्य दायित्वों से मुक्त रखने का वादा भी एक धोखा सिद्ध हुआ है। पिछले कुछ समय से नित नयी योजनाओं, आदेशों और ई-गवर्नेन्स के दबाव के चलते शिक्षकों पर ऐसे कामों का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है जो हमारी ऊर्जा का अपव्यय और पढ़ाने से बाधित करते हैं। शिक्षकों को अनुशासनहीन, अनुपस्थित आदि क़रार देकर उन्हें परिणामों के कमतर स्तरों के लिए ज़िम्मेदार ठहराना और उनपर निगरानी रखने के लिए बायोमैट्रिक हाज़िरी व मोबाइल फ़ोन आदि के तकनीकी उपाय करने तथा SMC को अधिकार देने के प्रस्ताव शिक्षकों के प्रति अपमानजनक लांछन पर आधारित हैं। स्कूल प्रबंधन समिति (SMC) को सामुदायिक जुड़ाव या लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तौर पर नहीं बल्कि शिक्षकों को नियंत्रित करने के औज़ार के रूप में देखा जा रहा हैI बायोमैट्रिक हाज़िरी का तर्क सहज रूप से कक्षाओं में CCTV की निगरानी तक जाता है।
जो सोच इस देश के मेहनतकश वर्गों और उनसे आने वाले विद्यार्थियों को चोर ठहराकर उनसे ज़बरदस्ती 'आधार' में नामांकन करवाती है और उनके तमाम तरह के रिकॉर्ड्स पर डिजिटल नज़र रखती है, वही सोच शिक्षकों को भी कामचोर मानकर उनकी बायोमैट्रिक हाज़िरी लेती है और उन्हें CCTV की निगरानी में क़ैद करती है। शिक्षण एक अकादमिक कर्म है और इसे यांत्रिक निगरानी के अधीन करने से सिर्फ़ इन उपकरणों के कारोबारियों का ही फ़ायदा होगा, शिक्षा या स्कूलों का नहीं।  शिक्षकों की वेतन-वृद्धि व अन्य लाभों को परीक्षा परिणामों से जोड़ने का प्रस्ताव बाज़ारवादी मैनेजमेंट से लिया गया है। ग़ुज़रे वर्षों में दिल्ली सरकार के स्कूलों में बोर्ड परिणामों को लेकर प्रशासन द्वारा प्रधानाचार्यों पर अनैतिक स्तर तक दबाव बनाने व उन्हें अपमानित, प्रताड़ित करने के अनुभव हमें इस नीति के नकारात्मक परिणामों के प्रति चेताने के लिए पर्याप्त हैं। 

नो डिटेंशन पॉलिसी के कंधे पर शिक्षा व्यवस्था की नाकामी का बोझ

रोके ना जाने (नो डिटेंशन) की नीति के मौजूदा प्रावधानों को संशोधित किया जाएगा क्योंकि इसने छात्रों के शैक्षिक कार्य प्रदर्शन को गंभीर रूप से प्रभावित किया है| रोके ना जाने की नीति कक्षा 5 तक ही सीमित होगी और उच्च प्राथमिक स्तर पर फेल किया जाने की प्रणाली को पुन:लागू किया जाएगा| (अध्याय 4)

यह विचार कि विद्यार्थी फ़ेल होने के डर से सीखते हैं, शिक्षाशास्त्र के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है और हम शिक्षकों के कर्म पर भी सवाल खड़े करता है। मगर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षा व समाज की बाक़ी व्यवस्था के वैसे-का-वैसा बने रहने पर फ़ेल करने की नीति अपनाने या नहीं अपनाने से कोई निर्णायक असर नहीं पड़ेगा। जब ये तय है कि इतने बच्चों को ही उच्च-शिक्षा के अवसर, वो भी ऊँचे दामों पर, मिलेंगे तो ऐसे में इस नीति से बहुत उम्मीद करना या इसपर आरोप लगाना दोनों निरर्थक होगाI नीति में फेल करने की नीति अपनाने से वंचित वर्गों से आने वाले विद्यार्थियों, खासतौर से छात्राओं, पर स्कूली शिक्षा से बाहर हो जाने की संभावना के बढ़ जाने के प्रति कोई चिंता व्यक्त नहीं की गई हैI इस नीति के तहत ऐसे विद्यार्थियों को कच्ची उम्र में ही वोकेशनल कोर्सों की तरफ ही धकेला जायेगाI ज़रूरत ऐसी आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था और मजबूत सार्वजनिक स्कूल प्रणाली का निर्माण करने की है जो सब बच्चों का शिक्षित होना सुनिश्चित करेगी। 



शिक्षकों की कमी पूरी करने के बहाने स्कूलों के विलय का नायाब तरीका

जब स्कूलों का विलय कर दिया जाएगा तब उन्हें एक ही परिसर में स्थापित किया जा सकेगाI राज्यों के परामर्श से आरटीई अधिनियम में ढील दिए बिना विलय एवं समेकन हेतु सामान्य दिशा निर्देश तैयार किए जाएंगेI यह समेकन देश को सामने दिखाई देने वाले भविष्य में एक कक्षा-एक अध्यापक मानक की प्राप्ति में समर्थ बनाएगाI (अध्याय 4) 

 सरकार द्वारा सार्वजनिक स्कूलों में गिरते नामांकन व कमतर सुविधाओं को एक चुनौती की तरह लेकर कोई उपाय या योजना न बनाना, बल्कि इस बहाने से स्कूलों को बंद करने  की नीति का प्रस्ताव देना शर्मनाक है। यह साफतौर से निजी स्कूलों के कारोबार को फलने-फूलने में मदद करेगाI रहा सवाल संसाधनों के व्यय का, तो शिक्षा जन-कल्याण का विषय है, विकास के दिखावटी समारोहों व प्रचारों की तरह कोई फ़ुज़ूलख़र्च नहीं। राजस्थान जैसे जिन राज्यों में इस नीति पर अमल करके स्कूलों को बंद किया गया है वहाँ का अनुभव यह बताता है कि इसका ख़ामियाज़ा वंचित जातियों व आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के बच्चों, उनमें भी ख़ासतौर से लड़कियों, को स्कूल से महरूम होकर उठाना पड़ा है। दिल्ली में ही हमारे सामने ऐसे ख़तरनाक और भविष्य की मंशा की तरफ़ इशारा करने वाले उदाहरण भी उपस्थित हैं जहाँ दक्षिणी दिल्ली नगर निगम ने गिरते नामांकन का बहाना करके अपना स्कूल एक एनजीओ को सौंप दिया। यह नीति ज़मीन और जनता के संसाधनों को निजी कब्ज़े में देने का ज़रिया बनेगी। बढ़ते GDP के ढोल, अन्य सार्वजनिक क्षेत्रों में विनिवेश व शिक्षा के उपकर के बावजूद शिक्षा के लिए पैसों की कमी का रोना बदस्तूर जारी हैI इसी दौर में हम यह भी देख रहे हैं कि सरकारें पूंजीपतियों के लाखों करोड़ के ऋण माफ़ कर रही हैंI तो असल सवाल संसाधनों की कमी का नहीं बल्कि प्राथमिकताओं का हैI

ड्रॉप-आउट बच्चों व बाल-मज़दूरों के लिए स्कूलों के दरवाजे बंद

पढ़ाई बीच में छोड़ देने वाले और काम-काजी बच्चों को बिना पूर्णकालिक औपचारिक स्कूलों में उपस्थित हुए अपनी पढाई करने में समर्थ बनाने के लिए मुक्त स्कूली शिक्षा सुविधाओं का विस्तार किया जाएगा| (अध्याय 4)

समाज में पहले-से ही वंचित-शोषित बच्चों की शिक्षा के लिए पूर्णकालिक स्कूलों की जगह ओपन/अल्पकालीन स्कूलों का  प्रस्ताव भेदभाव पर संस्थागत मुहर लगाता है। क्या यह दोयम दर्जे की नागरिकता का निर्माण लोकतंत्र का अपमान नहीं है? यह प्रस्ताव शिक्षा अधिकार क़ानून के ख़िलाफ़ तो है ही, इससे यह संदेश भी जाता है कि हमारी शिक्षा मुक्तिकामी नहीं, समझौतापरस्त रहेगी। 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने पहली बार इस तरह का शर्मनाक विचार दिया था और अगर सरकार इसकी असफलता की असलियत से वाक़िफ़ होकर आज भी इसे एक 'नेक उपाय' की तरह प्रस्तावित करती है तो यह साफ़तौर से इन बच्चों के प्रति बेईमानी व बदनीयती दिखाता है। इस प्रस्ताव को बाल-मज़दूरी कानून को लेकर हुए उन हालिया संशोधनों के संदर्भ में देखना होगा जिनसे 14 साल से कम उम्र के बच्चों को पारिवारिक धंधों/कामों में इस्तेमाल करने को चालाकी-भरी वैधता दे दी गई है और 14-18 साल के बच्चों के लिए ख़तरनाक समझे जाने वाले कामों की सूची को 83 से घटाकर 3 तरह के कामों तक ले आया गया हैI यह नीति निजी क्षेत्र का मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए कच्ची उम्र के सस्ते व असंगठित श्रमिकों की मजबूर फ़ौज उपलब्ध कराने की योजना हैI        

विद्यार्थियों को ऋण के जाल में फंसाना

आदिवासी बच्चों में शिक्षा स्तर एक गंभीर चिंता का विषय है| गंभीर मुद्दों, जैसे कि कम साक्षरता दरें, स्कूल छोड़ने का अधिक दर. आदिवासी बच्चो की अधिक मृत्यु दर का समाधान किया जाना है| अध्ययन कार्यक्रमों के लिए वित्त सुनिश्चित करने, जो या तो छात्रवृतियों अथवा ऋणों से हो सकता है, के लिए तंत्र बनाने से मेधावी छात्रों को उनके अध्ययन ज़ारी रखने में सहायता मिल सकती है| (अध्याय 4)

उच्च-शिक्षा के लिए ऋण देने की नीति को लेकर दिल्ली सरकार द्वारा जारी किये गये हालिया प्रचारों में हमें इस विचार में निहित अपमान की एक झलक मिलती है। ऋण की बात करने का तो मतलब ही यह है कि सरकार यह मानकर चल रही है, और हम लोगों को भी बता रही है, कि शिक्षा का निजीकरण, व्यावसायीकरण जारी रहेगा तथा वो महँगी होती जायेगी। ज़ाहिर है कि शिक्षा के सबसे बढ़िया संस्थानों में, जोकि आज भी सार्वजनिक हैं, कुछ समय पहले तक तो  फ़ीस इतनी नहीं होती थी कि मध्य-वर्गीय परिवारों को ऋण लेना पड़े। हम अनुमान लगा सकते हैं कि ऊँची फ़ीस चुकाने और ऋण लेकर पढ़ने के लिए मजबूर विद्यार्थियों की आगे की पढ़ाई की संभावना व उनके मनोविज्ञान पर जो प्रभाव पड़ेंगे वो समाज के हित में नहीं होंगे।  जहाँ लोग मकान, इलाज आदि ज़रूरतों के लिए पहले ही ऋण पर निर्भर हैं, वहाँ परिवारों पर शिक्षा के लिए भी ऋण लेने के क्या नतीजे होंगे?
शिक्षा के अंग्रेजीकरण की वकालत

अंग्रेज़ी का ज्ञान छात्र के राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय गतिशीलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और यह वैश्विक ज्ञान तक पहुँच प्रदान करता है| अतः बच्चों को अंग्रेज़ी पढ़ने और लिखने में कुशल बनाना आवश्यक है| (अध्याय 4) 

शिक्षा में भाषा के सवाल को लेकर भी दस्तावेज़ के प्रस्ताव आपत्तिजनक हैं। शिक्षाशास्त्र के सर्वमान्य सिद्धांत व शिक्षा सम्बंधी लगभग सभी आयोगों की अनुशंसाओं के विपरीत जाकर इसमें प्रारम्भिक स्तर के लिए भी माध्यम के रूप में मातृभाषा/क्षेत्रीय/स्थानीय भाषा को अपनाने की वकालत नहीं की गई है। इस तरह अंग्रेज़ी-परस्त होने के नाते यह नीति पिछली नीतियों से बिल्कुल अलग है। शिक्षा को पूरी तरह अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार की ज़रूरतों को पूरा करने का माध्यम मानकर अंग्रेज़ी के स्थान को और मज़बूत करने की वकालत की गई है। जहाँ निजी स्कूलों में तीन भाषा सूत्र का मखौल उड़ाकर फ्रेंच, जर्मन आदि पढ़ने के विकल्प दिए जाते रहेंगे, वहीं इस नीति के तहत विशिष्ट भाषाई संस्कृति को ढोने का दायित्व सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों पर डाला जाता रहेगाI इस बीच लोक संस्कृति और समृद्ध ज्ञान की वाहक भारत की सैकड़ों जनभाषायें उपेक्षा का शिकार होकर लगातार ख़त्म हो रही हैं। ऐसे में विशिष्ट जनों की भाषाओँ को अतिरिक्त बढ़ावा देना शिक्षा के उसूलों के भी विरुद्ध है और शिक्षा के जनतंत्रीकरण में भी बाधक ही होगा। 

शिक्षा को कॉर्पोरेट के शिकंजे से बचाना होगा

इस नीति के विचार की पृष्ठभूमि में कॉर्पोरेट शक्तियों द्वारा स्कूलों पर शिकंजा कसने व शिक्षा को बाज़ारवादी दर्शन पर खड़ा करने की क़वायद हैI प्रधानाचार्यों व शिक्षकों के काम को प्रबन्धन व नेतृत्व के गुरों पर व्याख्यायित करने का मतलब है कि वो संस्थान के साथी न होकर प्रशासक की भूमिका में होंगे। शिक्षा को निजी प्रबंधन के उसूलों पर चलाने से निजी क्षेत्र की तरह शिक्षा में भी डर, प्रस्तुतिकरण, दिखावे  व नियंत्रण के तत्व हावी हो जायेंगे।  इस दस्तावेज़ में सामाजिक न्याय, लोकतंत्र, वैज्ञानिक बोध/चेतना, समान स्कूल व्यवस्था जैसी संकल्पनाएँ बिल्कुल नदारद हैं। राज्य शिक्षा में देशी-विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करके इसे मुनाफाखोरी का क्षेत्र घोषित कर रहा हैI अन्य क्षेत्रों की तरह आज शिक्षा में भी नीति-निर्माण को राष्ट्रीय संप्रभुता, लोकतान्त्रिक निर्णय या देश के लोगों की माँग या जरूरत के अधीन समझना बेवक़ूफ़ी होगी। अपने मुख्य स्वरूप और विशिष्ट प्रस्तावों दोनों के स्तर पर शिक्षा नीति अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी ताकतों के प्रभाव के तहत लायी जा रही हैI
शिक्षा के बाज़ारीकरण व निजीकरण के परिणामस्वरूप गुणवत्ता में आई गिरावट और व्यावसायीकरण तथा मुनाफ़ाखोरी का उल्लेख मात्र लफ़्फ़ाज़ी के रूप में किया गया है। इसके बारे में कोई योजना या हस्तक्षेप प्रस्तावित नहीं किया गया है। यह देखने वाली बात है कि शिक्षा में खर्च करने के मामले में हम अभी भी नेपाल, भूटान व अफ्रीका के कई देशों से बदतर स्थिति में हैंI इस सन्दर्भ में  शिक्षा के लिए अपर्याप्त वित्त आवंटन की बात मानते हुए सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 6% व्यय करने की ज़रूरत का उल्लेख तो किया  गया है लेकिन इस सम्बंध में कोई प्रतिबद्धता नहीं जताई गई हैI

 बीते महीनों में स्कूलों के विलय के विरुद्ध कर्नाटक व आँध्र-प्रदेश के शिक्षक व विद्यार्थी संगठनों के मज़बूत व सफल आंदोलन, मैक्सिको में वेतन आदि को विद्यार्थियों के परिणामों से जोड़ने के प्रस्ताव के विरोध में शिक्षक आंदोलन जिसमें कई शिक्षकों ने शहादत तक दी, अमरीकी शहरों में शिक्षकों व अभिभावकों का विद्यार्थियों का बार-बार टेस्ट लेकर उन्हें चिन्हित करने व सतही पाठ्यक्रम पढ़ाने के ख़िलाफ़ हो रहे आंदोलन अमरीका में शिक्षा-ऋण के ख़िलाफ़ विद्यार्थियों के आंदोलन हमारे सामने अंतर्राष्ट्रीय पूँजी के दबाव में लाई जा रही शिक्षा नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध के प्रेरक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। यह जानते हुए कि दमन पर टिकी अलोकतांत्रिक राज्य-व्यवस्था, शोषण पर टिकी पूँजीवादी अर्थ-व्यवस्था व भेदभाव पर टिकी सामंती समाज-व्यवस्था के रहते केवल शिक्षा के माध्यम से परिवर्तन की उम्मीद रखना बेमानी है, हमारे सामने यही विकल्प बचता है कि सभी मोर्चों पर एकजुटता के संघर्ष जारी रखे जायें।

1 comment:

Anonymous said...

bhai aap isse sahmat honge ki shiksha ki gunvatta mein girawat aayi hai. usko sudharne ke baare mein aap kya kehna chahenge. hum gunvatta ke sawal ko tal nahin sakte. iske baare mein sarkari badniyati ko jimmewar kehkar ham is sawal ko avoid nahin kar sakte. Kuch sujhav ho sakte hain
- neighbour hood schools
- allahabad highcourt ka faisla
- ya school vishesh ke adhyapak apne bacchonko anivaryatah usi school mein padhayen
Ravinder Goel