Wednesday 21 February 2018

पर्चा: आइए, एकजुट होकर वेतन व गरिमा की लड़ाई लड़ें!!



साथियों,


यह घोर विडंबना है कि एक महाशक्ति और विश्वगुरु बनने की ओर अग्रसर देश की राजधानी तक में हम शिक्षकों को महीनों से समय पर वेतन नहीं दिया जा रहा है और हम अपने वेतन की लड़ाई लड़ने को मजबूर हैं। इससे न सिर्फ़ हमारा मनोबल टूट रहा है, बल्कि हम क़र्ज़ा लेने व लोन की क़िस्तें न भर पाने की स्थिति में आ गए हैं। स्कूलों को दलगत व क्षुद्र राजनीति का अखाड़ा बनाकर टेस्ट परिणामों और दिखावे के दबाव में राज्य सरकार व निगम के बीच जो खींचातानी चल रही है, उसका खामियाजा हम शिक्षकों को भुगतना पड़ रहा है। 
एक तरफ़ दिल्ली सरकार अपने शिक्षकों को परिणामों व हाज़िरी के आधार पर मेमो पर मेमो दिये जा रही है, दूसरी तरफ़ निगम भी दिल्ली सरकार की शिक्षा व बाल-विरोधी नीति की नक़ल करते हुये विद्यार्थियों को टेस्ट के आधार पर विभाजित करने और स्कूलों को केवल साक्षरता-केंद्र तक सीमित करने की योजना बना रहा है। इन्हीं टेस्ट्स के बहाने एनजीओ के धंधे और स्कूलों में अप्रशिक्षित वॉलंटियर की भूमिका को और बढ़ाया जाएगा। यह सबकुछ हम शिक्षकों को नाकाम, नाकारा बतलाकर किया जा रहा है। हमारी एसीआर में भी विद्यार्थियों द्वारा स्कूल छोड़ने के लिए हमें ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है, जबकि हम जानते हैं कि इसके पीछे स्कूलों में मूलभूत सुविधाओं की कमी, बच्चों के परिवारों के आर्थिक व शैक्षिक हालात और (विशेषकर लड़कियों के मामले में) सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियाँ ज़िम्मेदार होती हैं।





डिजिटलाइज़ेशन के तहत हम लगातार अपनी कक्षाओं, विद्यार्थियों को छोड़कर ऑनलाइन आँकड़े भेजने में लगे रहते हैं। चाहे वो वैसे ही नाममात्र के वज़ीफ़े हों, प्रवेश प्रक्रिया हो या व्यवस्था के ईमानदार, पारदर्शी व सुलभ हो जाने के दावे, हम सब जानते हैं कि ऑनलाइन की हक़ीक़त क्या है। बच्चे व अभिभावक बैंकों के चक्कर लगाने और कतारों में लगकर अपना वक़्त और दिहाड़ी गँवाने को मजबूर किए जा रहे हैं। सुविधाएँ लोगों की पहुँच से दूर व जटिल होती जा रही हैं। शिक्षा अधिकार क़ानून चाहे काग़ज़ों में हमारे लिए ग़ैर-शैक्षणिक काम को प्रतिबंधित करता हो, इस लंबी होती सूची के लिए कोई कर्मचारी नहीं है। हाँ, नित नए आदेश भेजने और तत्काल रपट माँगने के लिए ऑनलाइन व्यवस्था प्रशासन को ज़रूर जँचती है। 
सफ़ाई कर्मचारी पर्याप्त संख्या में नहीं हैं, मगर स्वच्छता का प्रदर्शन करने का इतना दबाव है कि हमने ख़ुद को ही नहीं बल्कि अपने विद्यार्थियों तक को उनकी पढ़ाई व स्वास्थ्य की क़ीमत पर झोंक दिया है। शौच जैसे निजी मामलों तक के लिए हमारे आत्म-सम्मान को कुचलकर हलफ़नामे भरवाये जा रहे हैं। हमारी तमाम निजी जानकारी को यू-डाइस पर भरवाया जा रहा है और हमारे निजता के अधिकार को कुचला जा रहा है। हमें इस लायक़ नहीं समझा जा रहा कि हम अपने प्रशिक्षण, पेशागत विवेक, अनुभव व अपनी योजना के हिसाब से शिक्षण और स्कूल की प्रक्रिया तय कर सकें। किस दिन विद्यार्थियों को कौन-सा भाषण जबरन पिलाना है, कौन-से दिन पढ़ाई नहीं करानी है, कौन-सा कार्यक्रम करना है, कौन-सी गतिविधि से कोई कार्यक्रम सम्पन्न करना है, यह सब हमें अनिवार्य आदेशों के तहत बताया जा रहा है। मानो स्कूलों व शिक्षकों का कोई स्वतंत्र अस्तित्व ही न हो, हम महज़ एक मशीन के पुर्ज़े हों।
हम सब जानते हैं कि निगम से लेकर राज्य व केंद्र सरकार तक को शिक्षा में न तो आकादमिक गहराई की चिंता है और न ही सब बच्चों को समान अधिकार देने की। हाँ, अगर ऑनलाइन डाटा न भरा-भेजा जाये तो हम पर ज़रूर कार्रवाई होती है। शिक्षकों पर अपराधी की तरह नज़र रखने की दृष्टि से कक्षाओं में सीसीटीवी लगाने की घोषणा दिल्ली सरकार कर ही चुकी है, कई राज्यों में – दिल्ली के कुछ स्कूलों में भी – बायोमेट्रिक हाज़िरी से निगरानी रखी जाने लगी है। आज न सिर्फ़ बड़ी-बड़ी कंपनियाँ निजी डाटा का कारोबार करती हैं, बल्कि यह हमारी सरकारों के लिए नागरिकों की जासूसी करने व हमको क़ाबू में रखने का औज़ार भी है। इस क्रम में हम पूर्वी दिल्ली नगर निगम के साथियों द्वारा ऑनलाइन कार्य का बहिष्कार करने के फैसले का स्वागत करते हैं।
चाहे वो न्यूनतम वेतन हो या ठेके पर नियुक्तियाँ या यूनियन बनाने पर बढ़ती पाबन्दियाँ, साम्राज्यवादी-पूंजीवादी ताक़तों के ये हमले केवल शिक्षा पर नहीं हो रहे, बल्कि इनकी मार मज़दूरों, किसानों, आदिवासियों पर भी पड़ रही है और जनता के जल-जंगल-ज़मीन व संसाधनों को अपनी लालच की हवस का निशाना बना रही है। और ये हमले केवल भारत में ही नहीं,
बल्कि वैश्विक स्तर पर हो रहे हैं। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च-शिक्षा तक में जन-विरोधी और पूँजी को लाभ पहुँचाने वाली नीतियाँ अपनाई जा रही हैं। सार्वजनिक यूनिवर्सिटी-कॉलेज को कहा जा रहा है कि वो फ़ीस बढ़ाकर और निजी कंपनियों से क़रार करके अपने ख़र्चे का एक बड़ा हिस्सा ख़ुद जुटाएँ। ज़ाहिर है कि एक तरफ़ इससे शिक्षा उन वर्गों से दूर होती जाएगी जिनकी पहुँच आज भी बेहद सीमित है, बल्कि जब निजी कंपनियों की जरूरतों के मुताबिक़ पढ़ाया जाएगा तो शिक्षा का चरित्र जनविरोधी और ज्ञानविरोधी भी होता जाएगा। अगर हमने आज कमर कसकर इन नीतियों का विरोध नहीं किया तो कल हमारे पास न सार्वजनिक स्कूल बचेंगे और न हमारे पेशे की गरिमा और आज़ादी|
हम माँग करते हैं कि
Ø  तुरंत प्रभाव से शिक्षकों के वेतन, एरियर्स व फंडस के नियमित भुगतान की व्यवस्था की जाए।
Ø  शिक्षकों की गरिमा को ठेस पहुँचाने वाले सीसीटीवी व बायोमेट्रिक हाज़िरी के फ़रमान को वापस लिया जाये।
Ø  स्कूलों में डाटा एंट्री ऑपरेटर की नियुक्ति की जाए और शिक्षकों से यह काम न लिया जाए।
Ø  टेस्ट परिणामों, एसीआर, मेमो, स्वच्छता अभियान का तानाशाही दबाव तुरंत हटाया जाए।
Ø  आउटसोर्सिंग, पीपीपी, एनजीओकरण आदि के ज़रिये निजीकरण करने की नीति को बंद किया जाए।
Ø  शिक्षा व्यवस्था को समानता व सामाजिक न्याय के संवैधानिक मूल्यों पर मज़बूती से खड़ा किया जाए।

1 comment:

Unknown said...

Aap ke sangharsh ka samarthan karte huye, yah asha karti hoon, ki aap safal honge!

Swati, AIFRTE